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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४०३ इन्द्रियाणां प्रचारविशेषमनवधार्य प्रवर्तते यः स प्रमत्तः । अथवा चतसृभिर्विकथाभिः कषायचतुष्टयेन पञ्चभिरिन्द्रियैनिद्राप्रणयाभ्यां चेति पञ्चदशभिः प्रमादैः परिणतो यः सः प्रमत्त इति कथ्यते । योजनं योगः सम्बन्ध इत्यर्थः । प्रमत्तेन योगः प्रमत्तयोगस्तस्मात्प्रमत्तयोगात् । नन्वेवं यद्यत्राऽद्रव्यं प्रमत्तशब्देनोच्यते तहि द्रव्यप्राधान्ये तेन सम्बन्धाऽप्रतीतेर्भावप्रधानो निर्देशः कर्तव्यः प्रमत्तत्वयोगादिति । सत्यमेवमात्मपरिणाम एव कर्तृत्वेन निर्दिश्यते । प्रमाद्यति स्मेति प्रमत्तः परिणामस्तेन योगस्तस्मात्प्रमत्तयोगादिति । अथवा कायवाङ मनस्कर्म योग इत्युच्यते । प्रमत्तस्याऽऽत्मनो योगः प्रमत्तयोगस्तस्मात्प्रमत्तयोगादिति हेतुनिर्देशः । प्रमत्तयोगाद्धेतो. प्राणव्यपरोपणं हिंसा भवतीति । प्राणा इंद्रियादयो दशोक्तास्तेषां यथासम्भवं व्यपरोपणं वियोगकरणं प्राणव्यपरोपणम् । सा हिंसा प्राणिनो दुःखहेतुत्वादधर्महेतुः । स्यान्मतं - अन्यः शरीरी प्राणेभ्योऽतस्तत्पूर्वकं दुःखमस्य न युज्यत इति । इन्द्रियों के प्रचार विशेष न जानकर जो प्रवर्तन करता है वह प्रमत्त कहलाता है । अथवा चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रियां, निद्रा और प्रणय इस प्रकार पंद्रह प्रमादों से युक्त को प्रमत्त कहते हैं। सम्बन्ध को योग कहते हैं। प्रमत्त योग पद में तत्पुरुष समास है। शंका-यदि यहां अद्रव्यको प्रमत्त शब्द से कहते हैं तो द्रव्य प्रधानता में उसके संबंध की प्रतीति नहीं होती अतः भाव प्रधान 'प्रमत्तत्व योगात्' ऐसा निर्देश करना चाहिए ? ____समाधान-ठीक कहा, हमने यहां आत्मपरिणाम को ही कर्तृत्वरूप से कहा है 'प्रमाद्यति स्म इति प्रमत्तः' जो प्रमाद युक्त परिणाम हुआ था उसको प्रमत्त कहते हैं, उससे जो योग हुआ वह प्रमत्त योग है । अथवा मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते हैं, प्रमत्त आत्माके योगको प्रमत्त योग कहते हैं, 'उससे' ऐसा हेतु निर्देश किया है। अभिप्राय यह है कि प्रमत्त शब्द से प्रमाद युक्त भाव-परिणाम की विवक्षा भी हो सकती है और प्रमादवान् आत्मा की विवक्षा भी। इस तरह भाव और द्रव्य प्रधानता से निर्देश कर सकते हैं, अर्थ यह होता है कि आत्मा के प्रमाद युक्त परिणाम से जो योग होता है उसके द्वारा जो प्राणोंका नाश होता है वह हिंसा है, अथवा प्रमादी आत्मा से जो योग होता है उससे जो प्राणोंका घात होता है वह हिंसा है ऐसा समझना चाहिए। इंद्रिय आदि दस प्राण हैं उनका यथा सम्भव व्यपरोपण-नाश करना प्राणव्यपरोपण कहलाता है वह हिंसा है, यह प्राणियों को दुःख देने वाली होने से अधर्मका हेतु है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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