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________________ ४०२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो भोज परिभ्रमन्ति । न चाऽत्र किंचिनियतमस्ति जलबुबुदोपमं जीवितं विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसम्पद इत्येवमादिर्भावनीयः । कायस्वभावश्चानित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारत्वमशुचित्वमित्येवमादिविनीयः । एवं ह्यस्य जगत्स्वभाव चिन्तनात्संसारात्परमसंवेगो जायते । कायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तिरूपं परमवैराग्यमुपजायते । सर्वाश्चैता भावनाः स्याद्वादिन एव यथासम्भवं व्रतदाढ्य प्रकुर्वाणा: संगच्छन्ते, न क्षणिकायेकान्ते तत्त्वतो भाव्यभावकभावानुपपत्तेः । कल्पनामात्रात्तदुपपत्तौ तु स्वार्थक्रियासिद्धेरभावात् । तत्र हिंसास्वरूपमाह प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ अधर्म, आकाश और काल) समुदाय ही लोक है, यह ताड़ वृक्ष के समान आकार वाला है और अनादि निधन है । इस लोक में-जगत में चारों गतियों में जीव नाना प्रकार के दुःखों को भोग भोग करके परिभ्रमण कर रहे हैं। इस जगत में कुछ भी नियत नहीं है जीवन जलके बुलबुले के समान है, बिजली मेघ आदि के समान भोग सम्पदायें चंचल हैं । इस प्रकार जगत के विषय में चिन्तन करना चाहिए। यह शरीर अनित्य है दुःख का कारण है निःसार है, अशुचि है ऐसा शरीर के स्वभाव का विचार करना चाहिए । इस तरह जगत् के स्वभाव का विचार करने से संसार से परम संवेग उत्पन्न होता है। शरीर के स्वभाव का विचार करने से विषय से निवृत्तिरूप परम वैराग्य पैदा होता है। ये सर्व ही भावनाएं स्याद्वादी के मत में यथासंभव व्रतोंको दृढ़ करने के लिए भायी जा सकती हैं, अन्य दर्शन वाले क्षणिकवादी इत्यादि के मतमें ये भावनाएं सम्भव नहीं हैं, क्योंकि क्षणिक मतमें भाव्य भावक भाव ही नहीं बनता अर्थात् यह भाव्य वस्तु है और यह भावना करने वाला है, अमुक व्यक्ति ने ऐसी भावना भायी ऐसा बनता ही नहीं क्योंकि भावना भाने वाला तो क्षण में नष्ट हो जाता है। इसी तरह आत्मादिको सर्वथा नित्य मानने वाले सांख्यादि के यहां भी भावना भाना शक्य नहीं, क्योंकि कूटस्थ (सर्वथा) नित्य ऐसे आत्मा में भावना का परिवर्तन होना रूप अनित्यता आ नहीं सकती है । यदि कल्पना मात्र में भावना है ऐसा कहे या माने तो उससे स्वार्थ क्रिया सिद्धि (स्वर्ग मोक्षकी) नहीं हो सकती। अब हिंसा का लक्षण बताते हैंसूत्रार्थ-प्रमाद के योग से प्राणोंका घात करना हिंसा है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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