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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४०१ पदेशश्रवणग्रहणाभ्यां विनीयन्ते पात्रीक्रियन्त इति विनेयाः । न विनेया अविनेयाः। एतेषु सत्त्वादिषु मैत्र्यादीनि यथाक्रमं भाव्यमानानि भावनाः परमप्रशमहेतवो भवन्ति । मैत्री सत्त्वेषु, प्रमोदो गुणाधिकेषु, कारुण्यं क्लिश्यमानेषु, माध्यस्थ्यमविनयेषु भावनीयमिति । पुनर्भावनार्थमाह ___जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ जगत्कायशब्दावुक्तार्थो । स्वेनात्मना भवनं स्वभावोऽसाधारणो धर्म इत्यर्थः । जगच्च कायश्च जगत्कायौ। जगत्काययोः स्वभावी जगत्कायस्वभावौ । संवेजनं संवेगः संसारभीरुतेत्यर्थः । चारित्रमोहोदयाभावे तस्योपशमात्क्षयात्क्षयोपशमाद्वा शब्दादिभ्यो विरञ्जनं विरागः । विगतो रागोऽस्येति वा विरागो विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् । संवेगश्च वैराग्यं च संवेगवैराग्ये । सवेगवैराग्याभ्यां संवेगवैराग्यार्थम् । जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ। तद्यथा-जगत्स्वभावस्तावत् आदिमदनादिपरिणामद्रव्यसमुदायरूपस्तालवृक्षसंस्थानोऽनादिनिधनः । अत्र जीवाश्चतसृषु गतिषु नानाविधदुःखं भोज उन्हें क्लिश्यमान कहते हैं । तत्त्वार्थ के उपदेश का श्रवण और ग्रहण द्वारा जो विनीतपात्र किये जाते हैं वे विनेय हैं जो विनेय नहीं हैं वह अविनेय हैं । इन सत्त्व गुणाधिक आदि में मैत्री आदि भावनायें क्रम से भावित होकर परम शान्त भावका कारण होती हैं। सत्त्वों में मैत्री, गुणाधिक में प्रमोद, क्लिश्यमान प्राणियों पर कारुण्य और अविनीत में माध्यस्थ्य भावना भानी चाहिए । पुनः भावना को कहते हैं सूत्रार्थ-जगत् और शरीर के स्वभाव का चिंतन संवेग वैराग्य के लिये करना चाहिए। जगत् और काय शब्द का अर्थ कह चुके हैं। अपने रूप से होना स्वभाव कहलाता है, असाधारण धर्म स्वभाव है । जगत् और कायके स्वभावका विचार करना। संसार भीरता को संवेग कहते हैं । चारित्र मोहकर्म के उदय के अभाव होने पर अथवा उपशम या क्षयोपशम हो जाने पर शब्दादि इन्द्रिय विषयों से विरत होना विराग है, अथवा जिसका राग निकल गया है वह विराग है उसको भाव या कर्म वैराग्य कहते हैं। संवेग और वैराग्य पदों में द्वन्द्व समास है । जगत् और कायके स्वभाव का विचार संवेग और वैराग्य होने के लिए करना चाहिए। वह कैसे करें सो बताते हैं-यह जगत् आदिमान और अनादिमान स्वभाव वाले (गुणों की अपेक्षा अनादि और पर्याय की अपेक्षा आदिमान) द्रव्यों के समुदाय स्वरूप है अर्थात् छह द्रव्योंका (जीव पुद्गल धर्म,
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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