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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाऽधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु ॥११॥
स्वकायवाङ मनोभिः कृतकारिताऽनुमतिविशेषः परेषां दुःखाऽनुत्पत्तावभिलाषो मित्रस्य भावः कर्म वा मैत्रीति कथ्यते । वदनप्रसादेन नयनप्रह्लादनेन रोमाञ्चोद्भवेन तुल्याऽभीक्ष्णसञ्ज्ञासङ्कीर्तनादिभिश्चाभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रकर्षेण मोदः प्रमोद इति निगद्यते । शारीरमानसदुःखाभ्यदितानां दीनानां प्राणिनामनुग्रहात्मकः परिणाम: करुणस्य भावः कर्म वा कारुण्यमिति कथ्यते । रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यमित्युच्यते । रागद्वेषाभावान्मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थस्तस्य भावः कर्म वा माध्यस्थ्यमिति व्युत्पत्तेः । अनादिनाऽष्टविधकर्मबन्धसन्तानेन तीव्रदुःखयोनिषु चतसृषु नरकादिगतिषु सीदन्तीति सत्त्वाः प्राणिन उच्यन्ते । सम्यग्दर्शनज्ञानादयो गुणास्तैरधिकाः प्रकृष्टा गुणाधिका इति
असदेद्योदयापादितशारीरमानसदु:खसन्तापात क्लिश्यन्त इति क्लिश्यमानाः। तन्वार्थो
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं। वह जो अब्रह्म संबंधी सुख आपने बताया वह वेदना का प्रतीकार मात्र है, मोही जीव तो दुःखको भी सुख मान लेते हैं जैसे खाज को खुजाने से होता तो दुःख है किन्तु उसको सुख मान लेते हैं।
वृत दृढ़ करने के लिये दूसरी भावनायें और बतलाते हैं
सूत्रार्थ-मैत्री भावना सब जीवों के प्रति करना चाहिए। प्रमोद भावना गुणी जनों में, दुःखी जीवों में कारुण्य और अविनीत में मध्यस्थ भावना भानी चाहिए, अपने मन, वचन और काय से तथा कृत कारित अनुमोदना से दूसरों को दुःख नहीं होवे इस प्रकार अभिलाषा होना मित्र भाव है मित्र का भाव या कर्म मैत्री कहलाती है। मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आह्लाद रोमाञ्च आना, हमेशा नाम लेना प्रशंसा करना इत्यादि द्वारा अन्दर का भक्ति राग जो प्रगट होता है वह प्रकृष्ट मोद प्रमोद कहलाता है । शारीरिक और मानसिक दुःखों से जो पीड़ित हैं ऐसे दीन प्राणियों का अनुग्रह करने का जो परिणाम है वह करुणा है, करुणा का भाव या कर्म कारुण्य कहलाता है, राग द्वेष पूर्वक जो पक्षपात होता वह नहीं होना माध्यस्थ्य है। रागद्वेष के अभाव से मध्य में रहता है वह मध्यस्थ है उसके भाव या कर्मको माध्यस्थ्य कहते हैं । अनादिकाल से ही आठ प्रकार के कर्म बंधकी सन्तान से तीव दुःखदायक चार नरकादि गतियों में जो दुःखी होते हैं वे 'सत्त्व' हैं सीदन्ति इति सत्त्वाः । अर्थात् प्राणी मात्रको सत्त्व कहते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इत्यादि गुण हैं उनसे जो अधिक हैं वे गुणाधिक कहलाते हैं । उत्कृष्ट महान् गुणों के धारकों को गुणाधिक जानना चाहिए। असाता वेदनीय कर्मके उदय से शारीरिक और मानसिक दुःखसन्ताप से जो क्लेश भोगते हैं