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सप्तमोऽध्यायः
[ ३९९ तथा हिंसादयोऽसद्वेद्यकर्मणः कारणमसद्वेद्यकर्म च दुःखस्य कारणमिति दुःखकारणकारणेषु हिंसादिषु दुःखमेवेत्युपचारः क्रियते । तदेतद्दुःखमेवेति भावनं हिंसादिष्वात्मवत्परत्रावगन्तव्यम् । तद्यथा-ममाप्रियं यथा वधपरिपीडनं तथा सर्वसत्त्वानाम् । यथा मम मिथ्याऽऽख्यानक टुकपरुषादीनि वचांसि श्रुण्वतोऽतितीवदुःखमभूतपूर्वमुत्पद्यते एवं सर्वजीवानाम् । यथा च ममेष्टद्रव्य वियोगे व्यसनमपूर्वमुपजायते तथा सर्वभूतानाम् । यथा च मम कान्ताजनपरिभवे परकृते सति मानसी पीडाऽतितीवा जायते तथेत रेषामपि प्राणिनाम् । यथा च मम परिग्रहेष्वप्राप्तेषु प्राप्तविनष्टेषु च कांक्षारक्षाशोकोद्भवं दुःखमुपजायते तथा सर्वप्राणिनामिति हिंसादिभ्यो व्युपरमः परमहितः । ननु वरांगनामृदुसुभगगात्रसंश्लेषणाद्रतिसुखमपि जायते तत्कथं दु खमेवेत्येवकारोपादानं नियमार्थमुपपद्यत इति । तदेतन्न युक्त-वेदनाप्रतीकारत्वान्मोहिनां दुःखस्यापि सुखाभिमानात् कच्छूकण्डूयनवत् । व्रतदृढत्वार्थमेवाऽपरभावनाः प्राह
तथा हिंसादिक क्रियायें असातावेदनीय कर्मके कारण हैं, असातावेदनीय दुःखका कारण है, इस तरह दुःख के कारण के कारण हिंसादि सिद्ध होते हैं उनमें 'दुःख ही है' ऐसा उपचार किया जाता है । हिंसादि में यह दुःख ही है ऐसी भावना अपने में करना चाहिए तथा पर जीवों के विषय में भी ऐसा ही विचार करना चाहिए। आगे इसीको बतलाते हैं-मारना; पीटना इत्यादि हिंसा कर्म जैसे मुझे अप्रिय हैं बुरे लगते हैं वैसे सभी जीवोंको लगते हैं । जैसे झूठ, कठोर, कडवे वचनों को सुनने से मुझे अति तीव्र कभी नहीं हुआ ऐसा दुःख होता है, ठीक इसी तरह सब जीवोंको उक्त वचनों से दुःख होता है। जैसे मेरा इष्ट धन नष्ट होने पर मुझे बड़ा भारी अपूर्व कष्ट का अनुभव होता है, वैसे सब जीवों को होता है। जैसे मेरी स्त्री का कोई तिरस्कार करे बुरी निगाह से उसे देखे, उनका सेवन करना चाहे या कर लेवे तो मुझे अत्यधिक मानसिक पीड़ा होती है, वैसे सब जीवों को होती है। जैसे मुझे धनादि परिग्रह प्राप्त नहीं होता या प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है तो वाञ्छा, रक्षा और शोक से उत्पन्न हुआ बड़ा भारी दुःख होता है, वैसे सर्व प्राणियों को होता है अतः हिंसादि से दूर रहना उनका त्याग करना परम हित है ।
___ शंका-श्रेष्ठ सुन्दर स्त्रियों के कोमल शरीर के आलिंगनादि से रति सुख होता है तो फिर आपने अब्रह्म को दुःख स्वरूप ही है ऐसा एवकार देकर नियम क्यों बनाया ? अर्थात् अब्रह्मादि कहीं सुखरूप भी है सर्वथा दुःख ही नहीं है अतः 'दुःखमेव' ऐसा एव शब्द का ग्रहण नहीं करना चाहिए ?