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सप्तमोऽध्यायः
[ ३९३ शून्यानि च तान्यगाराणि च शून्याऽगाराणि-गिरिगुहातरुकोट रादीनीत्यर्थः । विमोचितानि परैस्त्यक्तान्युद्वासनामादिगृहाण्युच्यन्ते । तेषूभयेष्वावसनमवस्थानमावासः । शून्याऽगाराणि च विमोचितानि च शून्याऽगारविमोचितानि । तेष्वावासः शून्याऽगारविमोचितावासः। परेन्ये । तेषामुपरोधस्याऽकरणं परोपरोधाऽकरणम् । भिक्षया आगतं भैक्षम् । तस्याऽऽचारशास्त्रमार्गेण शुद्धिनिर्दोषता भैक्षशुद्धिः । समानो धर्मो येषां ते सधर्माणः । विसंवादनं विसंवादः । पुस्तकादिषु तवेदमाहोस्विन्ममेदमिति विवाद इत्यर्थः। न विसंवादोऽविसंवादः । सधर्मभिरविसंवादः सधर्माऽविसंवादः । शून्या:गाराणि च विमोचितावासश्च परोपरोधाऽकरणं च भैक्षशुद्धिश्च सधर्माविसंवादश्च शून्यागारविमो. चितावास परोपरोधाऽकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसंवादाः । एते भाव्यमाना अस्तेयव्रतस्थैर्यसिद्धिहेतवः पञ्चभावना भवन्ति । तेषां चौर्यपरिणामनिवर्तनसामर्थ्यसद्भावात्परमनिस्पृहतोपपत्तेः । अथेदानीं ब्रह्मचर्यव्रतस्य भावनाः प्रतिपादनार्थमाहस्त्रीरागकथाश्रवणमनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरताऽनुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर
संस्कारत्यागाः पंच ॥ ७ ॥
शून्य और अगार पदमें कर्मधारय समास है । गिरि, गुहा, वृक्षका कोटर इत्यादि शून्यागार कहलाते हैं। परके द्वारा छोड़े गये घर एवं उजड़े गांवों के घर विमोचित कहलाते हैं, उन दोनों प्रकार के अगारों में रहना शून्यागार विमोचितावास कहलाता है । दूसरों को पर कहते हैं उनको रुकावट नहीं करना 'परोपरोधाकरण' है। भिक्षा से जो आया-मिला वह भैक्ष है, उस भक्षकी शुद्धि अर्थात् आचार ग्रन्थ के अनुसार शुद्ध निर्दोष भोजन लेना भैक्ष शुद्धि है । जिनका समान धर्म है वे सधर्मा हैं । पुस्तक आदि पदार्थों में यह तुम्हारा है अथवा यह मेरा है ऐसा साधर्मी के साथ विसंवाद नहीं करना, सधर्माऽविसंवाद है । शून्यागार आदि में द्वन्द्व समास है। अस्तेय व्रतकी स्थिरता के लिये ये पांच भावना भानो चाहिए। क्योंकि ये पांचों भावनाएं चोरी स्वरूप परिणामों को दूर करने की सामर्थ्य रखती हैं तथा परम निस्पृहता उत्पन्न कराती हैं।
अब चौथे ब्रह्मचर्य व्रतकी भावनाओं को कहते हैं
सत्रार्थ-स्त्री में राग बढ़ाने वाली कथाको सुनने का त्याग उनके मनोहर अंगों को देखने का त्याग पहले के भोगे भोगको स्मरण नहीं करना, गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग और अपने शरीर के संस्कार का त्याग करना ये पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनायें हैं।