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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
लोकितपान भोजनसमित्येतान्यहिंसापरिपालनार्थं भाव्यमानानि विशुद्धात्मना भावनाः पञ्च भवन्तीति । सङ्क्लेशाङ्गानां तु परवञ्चनतत्परपरुषवाग्गुप्त्यादीनां भावनात्वायोगात् । सत्यव्रतभावनाप्रतिपादनार्थमाह
क्रोधलोभभीरुत्व हास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ॥५॥
क्रोधश्च लोभश्च भीरुत्वं च हास्यं च क्रोधलोभभीरुत्वहास्यानि । तेषां प्रत्याख्यानानि निराकरणानि क्रोध लोभ भीरुत्व हास्यप्रत्याख्यानानि । अनुकूलवचनं विचार्य भणनं वा निरवद्यं वचनमनुवीचिभाषणमित्युच्यते । एतानि क्रोधप्रत्याख्यानादीनि पूर्ववद्भाव्यमानानि पञ्च भावनाः सत्यव्रतस्य विज्ञेयाः । इदानीं तृतीयव्रतस्य भावनाः प्रोच्यन्ते
शून्याऽगारविमोचितावासपरोपरोधाऽकरणभैक्षशुद्धिसधर्माऽविसंवादाः पंच ॥६॥
मनोगुप्ति, ईर्यासमिति आदान निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन ये अहिंसा वृतके परिपालनार्थं विशुद्ध आत्मा द्वारा भावित की गई भावनायें पांच होती हैं । किंतु जो संक्लेश का कारण है परको ठगने हेतु अर्थात् अपनी सत्यता दिखाने हेतु कठोर वचन आदि नहीं बोलना इत्यादि रूप वचन गुप्ति आदि करते हैं तो उनमें भावनापना नहीं है ऐसा जानना चाहिए ।
सत्यव्रत की भावना बताते हैं
सूत्रार्थ - क्रोध त्याग, लोभ त्याग, भय त्याग, हास्य त्याग तथा अनुवीचि भाषण
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ये पांच सत्यव्रत की भावनायें हैं । क्रोध, लोभ, भीरुत्व और हास्य पदों में द्वन्द्व समास करके प्रत्याख्यान शब्दके साथ तत्पुरुष समास करना । अनुकूल वचन, विचारकर वचन बोलना, निर्दोष वचन बोलना अनुवीचि भाषण कहलाता है । ये क्रोध त्याग इत्यादि भावना यदि पहले बताये गये क्रम से अर्थात् ठगना अपनी विशेषता दिखाना इत्यादि उद्देश्य से भायी जाती हैं तो भावना नहीं कहलायेगी, यदि विशुद्ध परिणाम सहित है तो सत्यबूत की पांच भावना कही जायगी ऐसा समझना चाहिए ।
अब तृतीय व्रतकी भावनाओं को कहते हैं
सूत्रार्थ - शून्य घर में वास, विमोचित घर में वास, परको नहीं रोकना, भिक्षा शुद्धि और साधर्मीजनों में विसंवाद नहीं करना ये अचौर्य व्रतकी पांच भावनायें हैं ।