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________________ [ ३८९ सप्तमोऽध्यायः व्रतेषु प्रधानमिति कृत्वा तदादौ प्रोच्यते । सत्यादीनां तु सस्यवृतिपरिक्षेपवत्तत्परिपालनार्थत्वादप्राधान्यम् । हिंसादिभिर्विरतेः प्रत्येकमभिसंबन्द्धाद्बहुत्वं प्राप्नोतीति चेत् सत्यं किंतु विरमणसामान्यस्य विवक्षितत्वादेकत्वं न्याय्यं यथा गुडतिलोदनादीनां पाक इत्यत्र भेदाऽविवक्षया पाकस्यैकत्वम् । श्रत एव बहुवचनमपि न कृतम् । स्यान्मतं ते - संवरत्वेन संयमाख्यो धर्मो वक्ष्यते, संयम एव च व्रतमिति पृथगिहोपादानमनर्थकमिति । तन्न युक्तिमत् - निवृत्तिरूपो हि संवरः । निवृत्तिप्रवृत्तिरूपं च व्रतम् । हिंसा भावार्थ-व्याकरण सूत्र के अनुसार ध्रुव पदार्थ से हटने निवृत्त होने अर्थ में प्रायः अपादानकारक ( पञ्चमी विभक्ति) होती है। यहां पर सूत्र में हिंसा 'नृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः' ऐसा अपादानकारक का प्रयोग है हिंसा से विरक्त होना अर्थात् हटना ऐसा अर्थ है इसमें शंका होती है कि हिंसादिपरिणाम ध्रुव तो हैं नहीं तो पंचमी विभक्ति कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर ग्रंथकार ने दिया है कि हिंसादि परिणाम भले ही अध्रुव किन्तु बुद्धि तो ध्रुव है, कोई भव्य प्राणी बुद्धि में सोचता है कि यह हिंसादिक इस लोक परलोक में दु:खदायक हैं इत्यादि, ऐसी बुद्धि में बात लेकर विरक्त होता है इस तरह बुद्धिको ध्रुव मानकर हिंसादि पद में अपादानकारक बनता है इसमें व्याकरण के नियमानुसार भी कोई दोष नहीं है । अहिंसा व्रत सर्व व्रतों में प्रधान है अतः उसको आदि में लिया है ( हिंसा से विरती होना अर्थात् अहिंसा व्रत पालना) सत्य आदि व्रत तो अहिंसा के परिपालनार्थ हैं, जैसे धान्यकी परिपालना - रक्षा हेतु खेत में बाड़ होती है । शंका - हिंसादि पांच पापों से प्रत्येक से विरत होना है अतः विरति शब्द बहुवचनान्त होना चाहिए । विरतिः ऐसा एक वचन करना ठीक नहीं है ? समाधान — ठीक है, किन्तु विरमण सामान्य की अपेक्षा एक वचन न्याय्य है, जैसे 'गुडतिलोदनादीनां पाक:' इस वाक्य में 'पाक' ऐसा एक वचन किया है, क्योंकि इसमें भेदविवक्षा नहीं होने से एक वचन न्याय्य है । इसी तरह यहां पर सूत्र में भी बहुवचन नहीं किया है । शंका- आगे संवररूप से संयम नामका धर्म कहेंगे जो संयम होता है वह व्रतरूप होता ही है, अतः यहां ( सातवें अध्याय में ) उसका पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ है ? समाधान - यह कथन अयुक्त है । देखिये ! संवर तो निवृत्तिरूप होता है किंतु व्रत तो निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों रूप होता है । हिंसादिक पाप परिणामों से तो
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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