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अथ सप्तमोऽध्यायः
व्रतिष्वनुकम्पा शुभस्य कर्मण प्रास्रवो भवतीत्युक्त प्राक् । ते च वतिनो व्रतेन युक्ता भवन्ति । तच्च व्रतं किमित्याह
हिंसाऽनृतस्तेयाजाह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव॑तम् ॥१॥ ___ हिंसा चानृतं च स्तेयं चाऽब्रह्म च परिग्रहश्च हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहा वक्ष्यमाणलक्षणास्तेभ्यो हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यः । विरतिविशुद्धिपरिणामकृता निवृत्तिव्रतं भवति । क्रोधाद्यावेशवशात्सा न व्रतं स्यादित्यर्थः। हिंसादीनां परिणामानामध्र वत्वात्कथमपादानत्वमिति चेत्सत्यं बुद्धयपाये तेषां ध्र वत्वविवक्षोपपत्तेरपादानत्वमुपपद्यते। धर्माद्विरमतीत्यादिवत् । अहिंसावतं सर्वेषु
व्रतियों में अनुकम्पा करना शुभ कर्मका आस्रव है ऐसा पहले कहा है। व्रती व्रतयुक्त होते हैं । अतः वह व्रत क्या है ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहों से विरक्त होना व्रत है।
हिंसा आदि पदों में द्वन्द्व समास है। विशुद्ध परिणाम के निमित्त से जो विरक्तता होती है वह 'व्रत' कहलाता है। अर्थात् क्रोध, मान आदि कषाय के आवेश में आकर जो विरक्ति उदासीनता (नफरत) होती है वह व्रत नहीं, किन्तु विशुद्ध (शांत) भावकी वजह से जो पाप कार्यों से विरक्ति होती है वह व्रत कहलाता है ।
प्रश्न-हिंसा असत्य इत्यादि परिणाम अध्रुव हैं अतः उनसे अपादान कारक (पञ्चमी विभक्ति) कैसे हो सकता है ?
उत्तर-प्रश्न ठीक किया है किन्तु बुद्धि से अपाय होना मानकर हिंसादि परिणामों को ध्रुव समझकर उस अपेक्षा से ध्र व विवक्षा बनती है और हिंसा आदि पदको अपादान विभक्ति सिद्ध होती है। जैसे धर्मसे विरक्त होता है इस वाक्य से 'धर्मात्' (पञ्चमी विभक्ति) अपादान कारक होता है, धर्मपरिणाम भी अध्रुव हैं किन्तु बुद्धि ध्रव होने से धर्मबुद्धि से विरक्त होता है।