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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३८५ मनुभवति । यथा शौण्ड: स्वरुचिविशेषान्मदमोहविभ्रमकरी मदिरां पीत्वा तत्परिपाकवशादनेकविकारमास्कन्दति यथा वा रोगपीडितोऽपथ्यभोजनजनितं वातादिविकारमाप्नोतीति । सर्वस्य च ज्ञानप्रदोषादेरास्रवकारणस्य ज्ञानावरणादिकर्मागमनस्य च तत्फलस्य च सद्भावः सर्वज्ञवीतरागप्रणीतादागमाद्दृष्टेष्टाविरुद्धादवबोद्धव्यः । स्यान्मतं ते—ये तत्प्रदोषन्निह्नवादयो ज्ञानावरणादीनामास्रवाः प्रतिनियता उक्तास्ते सर्वेषां कर्मणामास्रवा भवन्ति, ज्ञानावरणे हि बध्यमाने युगपदितरेषामपि कर्मणां बन्धस्यागमे इष्टत्वात् । तस्मादास्रवनियमोऽनुपपन्न इति । अत्रोच्यते-यद्यपि तत्प्रदोषादिभिर्ज्ञानावरणादीनां करता है। जैसे मदिरा पेयी पुरुष अपनी रुचि से मद मोह विभ्रम को करने वाली मदिरा को पीकर उसके परिपाकवश अनेक विकारों को प्राप्त होता है। अथवा जैसे रोग पीड़ित पुरुष अपथ्य भोजन के निमित्त से उत्पन्न हुए वात आदि विकार को प्राप्त होता है वैसे ही इन कर्मों को स्वयं ही बांधकर उनके उदयकाल में यह मोही संसारी प्राणी अनेक प्रकार के कष्ट, दु:ख, वेदना, आपत्तियों को भोगता है ऐसा समझना चाहिए। ज्ञानके प्रदोष आदि करना इत्यादि रूप जो आसवों के कारण ऊपर बताये हैं जो ज्ञानावरण आदि कर्मों के आगमन कराते हैं उन सबका सद्भाव तथा उन कर्मों के फलों का सद्भाव सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत आगम से जाना जाता है क्योंकि उक्त आगम में प्रत्यक्ष परोक्षरूप से कोई बाधा नहीं आती। शंका-आपने जो तत्प्रदोष निन्हव इत्यादि को ज्ञानावरणादि के प्रतिनियतरूप से आसव कहे हैं वे सर्व ही आसव सम्पूर्ण कर्मोंके आसव होते हैं, देखिये ! ज्ञानावरण कर्म जब बँधता है उस वक्त एक साथ अन्य दर्शनावरण वेदनीय आदि कर्म भी बंधते हैं इसलिए अमुक आसव अमुक कर्मको बाँधता है ऐसा नियम घटित नहीं होता है ? समाधान-ठीक कहा। किन्तु तत् प्रदोष आदि के द्वारा ज्ञानावरणादि सभी कर्मों के प्रदेश आदि बन्ध होने में नियम नहीं है, तथापि अनुभाग बन्ध होने में नियम है उस अनुभाग विशेष की दृष्टि से प्रदोष निन्हव आदिका विभाग होकर पृथक्-पृथक् कारणों से कर्मका विशिष्ट अनुभाग होता है ऐसा जानना चाहिए। इसको प्रायः कह दिया है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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