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________________ ३८४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती विनयेनावनतिर्नीचर्वर्तनं नीचैवत्तिरित्याख्यायते । विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमदविरहोऽनहङ्कार उत्सेकाभावोऽनुत्सेक इत्युच्यते । नीचैर्वृत्तिश्चानुत्सेकश्च नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको। चशब्दोऽनुक्ततद्विस्तरसमुच्चयार्थः। उत्तरस्य नीचैर्गोत्रात्परस्योच्चैर्गोत्रस्येत्यर्थः । उच्चैःशब्दोऽप्यधिकरणप्रधानः । उच्चैःस्थाने आत्मा क्रियते येन तदुच्चैर्गोत्रं कर्मोच्यते । तस्यात्मनिन्दादीन्यास्रवकारणानि प्रत्येतब्यानि । सम्प्रत्यन्तरायकर्मास्रवं निर्दिशन्नाह विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां विहननं विघ्न इति व्यपदिश्यते। अत्र 'स्थास्नापाव्यधिहनेयुध्यर्थ' इति घार्थे कविधानम् । विघ्नस्य करणं-कृतिविघ्नकरणमन्तरायाख्यस्य कर्मण प्रास्रवो वेदितव्यः । क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्येत्यत इति करणस्य प्रकारार्थस्यानुवृत्तेश्च सर्वत्रानुक्तार्थसम्प्रत्ययो भवति । एवमुक्त नास्रवविधिना यत्स्वयमुपात्तं ज्ञानावरणाद्यष्टविद्यं कर्म तन्निमित्तवशादात्मा संसारविकार उच्च गोत्र कर्मका आसव है। गुणों से उत्कृष्ट जनों में विनय से झुकना, नीचैर्वृत्ति कही जाती है। अपने में विज्ञान आदि की अपेक्षा उत्कृष्टता है तो भी उनका अहंकार नहीं करना-उत्सेक नहीं होना अनुत्सेक कहलाता है अर्थात् अहंकार को उत्सेक कहते हैं और अहंकार का अभाव अनुत्सेक है । च शब्द अनुक्त समुच्चय के लिये है। उत्तर का अर्थ उच्चैर्गोत्र है । उच्चैः शब्द भी अधिकरण प्रधान है । उस उच्चगोत्र के आसव अपनी निन्दा करना, परकी प्रशंसा करना, नमवृत्ति और अनुत्सेक आदि हैं यह अर्थ हुआ। अब अन्तराय कर्मके आसव को कहते हैंसूत्रार्थ-विघ्न करना अन्तराय कर्मका आसव है । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य का घात करना विघ्न कहलाता है। यहां 'स्थास्नापाव्यधिहनेयुध्यर्थं' इस व्याकरण के सूत्र से घन अर्थ में क प्रत्यय आकर वि उपसर्ग युक्त हन् धातु से 'विघ्न' शब्द बना है । विघ्न करने से अन्तराय कर्मका आसव होता है ऐसा जानना चाहिए । 'क्षान्तिः शौच मिति' इत्यादि साता वेदनीय कर्म के आसव बताते समय सूत्र में 'इति' शब्द प्रकार अर्थ में आया था उसकी अनुवृत्ति अग्रिम सर्व सूत्रों में पायी जाती है, उससे जिन आसवों के नाम नहीं कहे हैं उनका समुच्चय या बोध हो जाता है। इस प्रकार कही गयी आसव विधि से जो स्वयं उपात्त ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म हैं उनके निमित्त से आत्मा संसार के विकार का अनुभव
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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