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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३८१ निवर्तनं प्रतिक्रमणम् । श्रनागतदोषापोहनं । प्रत्याख्यानम् । परिमितकालविषया शरीरममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्ग इति । अपरिहाणिरपरित्यजनं यथाकालं प्रवर्तनमित्यर्थः । श्रावश्यकानामपरिहाणि रावश्यक - परिहारिणः । ज्ञानतपोजिनपूजाविधिना मार्गस्य धर्मस्य प्रभावनं प्रकाशनं मार्गप्रभावना । प्रकृष्टं वचनं विशेषार्थ - यहां पर वन्दना का स्वरूप सूत्ररूप से संक्षिप्त कहा है, इसका विस्तृत विवेचन इस प्रकार है- वन्दना को ही देव वन्दना कहते हैं, यह तीनों सन्ध्याओं में जो सामायिक की जाती है उसका अंगभूत है । प्रातः काल मध्याह्नकाल और सायंकाल ये इसके काल हैं । सूर्योदय होने के पूर्व में, मध्याह्न में और सूर्यास्त के अनन्तर साधुजन ( व्रतीजन भी ) सामायिक करते हैं उसमें सर्वप्रथम सर्व पाप क्रियाओं का त्याग, मन वचन कायकी शुद्धि करना चाहिए फिर पडिक्कमामि... इत्यादि ईर्यापथ शुद्ध करें, सामायिक स्वीकार कर चैत्यभक्ति की विज्ञापना कर चत्तारि मंगलादि दंडक बोलकर कायोत्सर्ग करें फिर थोस्सामि दण्डक बोलें फिर चैत्यभक्ति बोलें, इसमें चैत्यभक्ति की विज्ञापना करते समय बैठकर गवासन से नमस्कार करते हैं यह एक आसन या बैठना हुआ, फिर चत्तारि दण्डक के प्रारम्भ में तीन आवर्त ( हाथ जोड़कर विशिष्ट रीति से तीन बार घुमाना ) और एक शिरोनति ( शिरको झुकाना ) होती है । पुन: उसी चत्तारिदण्डक के अन्त में तीन आवर्त्त एक शिरोनति होती है । फिर कायोत्सर्ग करना (सत्तावीस श्वासोच्छ्वास में नौ बार णमोकार मन्त्र जपना ) अनंतर गवासन से बैठकर नमस्कार करना यह दूसरी बार आसन हुआ । पुनः थोस्सामि दंडक के प्रारम्भ में तीन आवर्त और एक शिरोनति तथा दण्डक के अन्त में तीन आवर्त एक शिरोनति करना फिर 'जयति भगवान्' इत्यादि चैत्यभक्ति बोलना, इसप्रकार एक भक्ति सम्बन्धी क्रिया में दो बार आसन चार बार शिरोनति और बारह आवर्त होते हैं । ऐसे ही पञ्चगुरु भक्ति में होते हैं क्योंकि देव वन्दना में दो भक्तियां होती हैं और अंत लघु समाधि भक्ति होती है, इस क्रिया के अनन्तर आत्मध्यान चिन्तन करें । इस तरह यह देववन्दना या सामायिक विधि है । तीनों कालों में यही क्रम है । अतीत दोषों से हटना या अतीत दोषों को दूर करना प्रतिक्रमण है । आगामी दोषों का त्याग प्रत्याख्यान है । परिमित कालपर्यन्त शरीर के ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है । यथासमय प्रवर्त्तन करने को अपरिहाणि कहते हैं आवश्यक क्रियाओं की अपरिहाणि को आवश्यक अपरिहाणि कहते हैं । ज्ञान, तप, जिनपूजा आदि से धर्म मार्गका प्रकाशन करना मार्गप्रभावना है । प्रकृष्ट है वचन जिसके उसे 'प्रवचन' कहते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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