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________________ ३८२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती यस्यासौ प्रवचनः सधर्मो जैनवर्ग इत्यर्थः । तस्मिन् प्रवचने वत्सलत्वं-वत्से धेनुवत्स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वं धर्मलक्षणम् । तीर्थं करोतीति तीर्थकरो भगवान् परमदेवोर्हन्प्रोच्यते । तस्य भावस्तीर्थकरत्वम् । तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि समस्तानि व्यस्तानि वा दर्शनविशुद्धिसहितानि तीर्थकरत्वस्य नाम्नस्त्रिजगदाधिपत्यफलस्यास्रवकारणानि भवन्ति । तत एव दर्शनविशुद्धिः प्रथममुपात्ता प्राधान्यख्यापनार्थं, तदभावे तदनुपपत्तेः । इदानीं गोत्रास्रवे वक्तव्ये सति नीचैर्गोत्रस्य तावदास्रव विधानार्थमाह परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणच्छादनोद्भावने च नीचर्गोत्रस्य ॥२५॥ परश्चात्मा च परात्मानौ । तथ्यस्यातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रतीच्छा निन्देत्युच्यते । सद्भूतस्यासद्भूतस्य वा गुणस्योद्भावनं प्रत्यभिप्रायः प्रशंसेति व्यपदिश्यते । निन्दा च प्रशंसा च निन्दाप्रशंसे । परात्मनोनिन्दाप्रशंसे परात्मनिन्दाप्रशंसे । अत्र यथासङ्घयमभिसम्बन्धो द्रष्टव्यःपरनिन्दा प्रात्मप्रशंसेति । सन्विद्यमानोऽसन्नविद्यमानः । संश्चासंश्च सदसन्तौ । सदसन्तौ च तौ गुणौ अर्थात् धर्मात्मा जैन समुदायको प्रवचन कहते हैं, उसमें वत्सलत्व करना, जैसे बछड़े पर गाय स्नेह करती है वैसे धर्मात्माओं पर स्नेह वात्सल्य धर्मका लक्षण है । तीर्थ को करने वाले तीर्थंकर हैं भगवान परमदेव अर्हन्त तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर के भावको तीर्थंकरत्व कहते हैं। भले प्रकार से भावित की गयी ये जो सोलह भावनायें हैं वे दर्शनविशुद्धि युक्त समस्तरूप या व्यस्तरूप तीर्थंकरत्व नामकर्म के आसव हैं। जिस तीर्थंकरत्व नामकर्म का फल तीन लोकों का आधिपत्य स्वामित्व स्वरूप है। इन सोलह भावनाओं में दर्शन विशुद्धि भावना प्रमुख है उसी कारण इसको सूत्रमें सर्व प्रथम लिया है जिससे प्रधानता स्पष्ट हो। यदि दर्शन विशुद्धि भावना नहीं है तो तीर्थंकर नाम कर्मका आसव नहीं होता। अब गोत्रकर्म का आसव कहना चाहिए, इसमें पहले नीच गोत्रका आसव बतलाते हैं सूत्रार्थ-पर और आत्मा को परात्मा कहते हैं। तथ्य और अतथ्य अर्थात् वास्तविक अथवा अवास्तविक दोषको प्रगट करने की इच्छा निन्दा कहलाती है, सद् विद्यमान या अविद्यमान गुणको प्रगट करने का अभिप्राय प्रशसा है । निन्दा और प्रशंसा अर्थात् परकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना 'परात्मनिन्दा प्रशंसे' है यहां क्रम से सम्बन्ध करना-परकी निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना । सत् विद्यमान असत् अविद्यमान । सत् और असत् पदों में द्वन्द्व समास है, मनः
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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