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________________ ३८० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगावभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ । स्वशक्तयनुरूपेण शक्तितः । परप्रीतिकराहाराभयज्ञानप्रदानं त्यागः । मार्गाऽविरुद्धकायक्लेशाऽनुष्ठानं तपः । त्यागश्च तपश्च त्यागतपसी । साधोमुनिजनस्य समाधानं साधुसमाधिः-मुनिगणस्य तपसः कुतश्चिद्विघ्ने समुत्थिते तत्सन्धारणमित्यर्थः । साधुजनस्य दुःखे समुत्पन्ने निरवद्येन विधिना तदपहरणं बहूपकारं वैयापृत्यं, तस्य करणमनुष्ठानं वैयापृत्यकरणम् । अर्हन्त: केवलज्ञानदिव्यलोचना वर्ण्यन्ते । प्राचार्याः पञ्चाचारसम्पन्ना: श्रुतज्ञानचक्षुषः परहितसम्पादनातत्परा: प्रोच्यन्ते । बहुश्रुताः स्वपरसमयविस्तरनिश्चयज्ञाः कथ्यन्ते । प्रवचनं परमागमः । भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिरुच्यते । अर्हन्तश्चाचार्याश्च बहुश्रुताश्च प्रवचनं चाहदाचार्यबहुश्रु तप्रवचनानि । तेषु भक्तिरर्हदाचार्यबहुश्रु तप्रवचनभक्तिः । अवश्य कर्तव्यान्यावश्यकानि क्रियाविशेषाः षड्भवन्ति । सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो वन्दना प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गश्चेति । तत्र सामायिक सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं चित्तस्यकत्वेन ज्ञाने प्रणिधानम् । चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थकरपुण्यगुणानुकीर्तनं कथ्यते । वन्दना त्रिशुद्धि द्रव्यासना चतुःशिरोनतिर्दादशावर्तना। समस्तातीतदोषउससे अर्थ यह होता है कि सतत् ज्ञानोपयोग में और संवेग में जुट जाना लगे रहना। शक्ति के अनुसार को शक्तितः कहते हैं । परको प्रीतिकारक ऐसा आहार, अभय और ज्ञानको देना त्याग कहा जाता है । मार्ग के अविरुद्धरूप कायक्लेश करना तप है, अपनी शक्ति के अनुसार त्याग और तप करना 'शक्तितस्त्यागतपसी' है। मुनिजन को समाधान करना साधु समाधि है अर्थात् मुनियों के तप में किसी कारण से विघ्न उपस्थित होने पर उसको दूर करना, मुनियों को सहायक बनना साधु समाधि है। साधुओं के दुःख उत्पन्न होने पर निर्दोष विधि से उस दुःखको दूर करना वह बहुउपकारी वैयापृत्य है उसका अनुष्ठान वैयापृत्यकरण है। केवलज्ञानरूप दिव्य नेत्रों के धारक अर्हन्त देव कहे जाते हैं, पञ्चाचार परायण परके हित में तत्पर श्रुतज्ञानरूपी नेत्रों के धारक आचार्य होते हैं । स्वसमय और परसमय के विस्तार को जानने वाले बहुश्रुत कहलाते हैं। परमागम को प्रवचन कहते हैं। भावों की विशुद्धि युक्त अनुरागको भक्ति कहते हैं, अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रु त और प्रवचन में भक्ति होना अर्हन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रु तभक्ति और प्रवचनभक्ति कहलाती है। अवश्य ही करने योग्य जो क्रिया विशेष होते हैं वे आवश्यक कहे जाते हैं। वे छह हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । सर्व सावद्य योगका त्यागरूप लक्षण वाला ऐसा चित्तका एकपने से ज्ञान में लगना सामायिक है । तीर्थंकरों के पवित्र गुणोंका अनुकीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव है। मन वचन कायकी शुद्धि, दो बार आसन (बैठना) चार शिरोनति बारह आवर्त रूप क्रियायें जिसमें होती हैं वह वन्दना है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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