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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वेदितव्यः । शुभाऽशुभत्वं च नामकर्मणः शुभाऽशुभकार्यदर्शनादनुमेयम् । तत्कार्यानेकत्वाच्च तदनेक प्रत्येतव्यम् । इदानीं शुभतमतीर्थकरत्वनामास्रवमाहवर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियाप्रत्यकरणमहवाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकाऽपरि
हाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं प्रागुक्तम् । तस्य विशुद्धिः सर्वातिचारविनिमुक्तिरुच्यते । दर्शनस्य विशुद्धिर्दर्शनविशुद्धिः तस्या अष्टावङ्गानि भवन्ति । निःशङ्कितत्वं, निःकांक्षता, विचिकित्साविरहः, अमूढदृष्टिता, उपबृहणं, स्थितीकरणं, वात्सल्यं, प्रभावनं चेति । तत्रेहलोकपरलोकव्याधिमरणाऽसंयमाऽरक्षणाकस्मिकसप्तविधभयविनिर्मुक्तता, अहंदुपदिष्टे वा प्रवचने किमिदं स्याद्वा नवेति शङ्काविरहो निःशङ्कितत्वम् । उभयलोकविषयोपभोगाकांक्षानिवृत्तिः कुदृष्टयन्तराकांक्षानिरासो वा नि:कांक्षता।
संसार से भयभीत रहना, प्रमादको छोड़ देना, अखण्ड चारित्र पालन इत्यादि शुभ नाम कर्मके आसव हैं । शुभ नाम और अशुभ नाम कर्मका शुभत्व अशुभत्व उनके कार्य से जाना जाता है। नाम कर्मके कार्य अनेक प्रकार के हैं अतः नामकर्म भी अनेक प्रकार का सिद्ध होता है।
इस समय सर्वाधिक शुभ तीर्थंकर नाम कर्मका आसूव बतलाते हैं
सूत्रार्थ-- दर्शनविशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शील और व्रतों में अतिचार नहीं लगाना, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग और तप करना, साधु समाधि, वैयावृत्य करना, अर्हद् भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रु त भक्ति, प्रवचन भक्ति आवश्यकों की हानि नहीं करना, मार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य ये सोलह भावनायें शुभ तीर्थंकर नाम कर्मके आसच हैं।
तत्त्वार्थ श्रद्धान को दर्शन कहते हैं, संपूर्ण अतिचारों से रहित होना दर्शन की विशुद्धि है । उसके आठ अंग होते हैं-निःशंकितत्व, निःकांक्षता, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टिता, उपबृहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना । निःशंकित अंगको कहते हैंइहलोकभय, परलोकभय, व्याधिभय, मरणभय, असंयमभय, अरक्षणभय, और अकस्मात् भय इन सात भयों से रहित होना, अर्हन्त द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में क्या यह है अथवा नहीं है ? ऐसी शंका नहीं करना निःशंकितत्व अंग है । इस लोक संबंधी और परलोक सम्बन्धी विषय भोगों की कांक्षा नहीं करना अथवा मिथ्यामत की कांक्षा नहीं करना