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षष्ठोऽध्यायः
[ ३७७ योगवक्रता विसंवादनं चाऽशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ उक्तलक्षणाः कायादियोगास्तेषां वक्रता प्रात्मगता कुटिलवृत्तिर्योगवक्रतेत्युच्यते । प्रात्मान्तरेऽपि तत्प्रयोजकत्वं विसंवादनम् । अभ्युदयनिःश्रेयसार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं कायवाङ मनोभिविसंवादयतिमैवं कार्षीस्त्वमेवं कुर्विति कुटिलतया प्रवर्तमानमित्यर्थः। चशब्दोऽनुक्तस्यैवविधस्य परिणामस्य समुच्चयार्थः । स च मिथ्यादर्शनपिशुनाऽस्थिरचित्तताकूटमानतुलाकरणपरनिन्दात्मप्रशंसादिः । स एष सर्वोऽप्रशस्तस्यनामकर्मण प्रास्रवः प्रत्येतव्यः । सांप्रतं शुभनामास्रवमाह
तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ तच्छब्देन पूर्वोक्त योगवक्रतादिकं परामृश्यते । तस्माद्विपरीतं तद्विपरीतम् । कायावाङ मनसामृजुत्वमविसंवादनं चोच्यते । तथा पूर्वत्र चशब्दसमुच्चितस्य विपरीतधार्मिकदर्शनसम्भ्रमसद्भावोपनयनसंसरण-भीरुताप्रमादवर्जनाऽसंभेदचरितादिकं गृह्यते । तदेतत्सर्वं प्रशस्तस्य नामकर्मण प्रास्रवो
- सूत्रार्थ-योगों की कुटिलता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं ।
मनोयोग वचनयोग और काययोग का लक्षण कह आये हैं, उनकी कुटिलता अर्थात् अपने योगों में कुटिलता होना। अन्य व्यक्ति में भी उस कुटिलता से प्रवर्तन कराना विसंवादन कहलाता है। इसीको बताते हैं-अभ्युदय और निःश्रेयस साधक क्रियाओं में कोई व्यक्ति प्रवृत्ति कर रहा है। उसको मन वचन काय द्वारा विवाद में डालना कि ऐसा मत करो ऐसी क्रिया ठीक नहीं इस तरह (मेरा जैसा) आचरण करो। ऐसा कुटिल भाव से प्रवृत्त होना विसंवाद कहलाता है। इस तरह के अनुक्त परिणाम के समुच्चय के लिए च शब्द आया है। वे अनुक्त परिणाम कौन से हैं सो बताते हैंमिथ्यादर्शन, चुगली, अस्थिर चित्त, झूठे माप तौल रखना, परकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना इत्यादि सर्व ही अशुभ नामकर्म के आस्रव जानने चाहिए।
अब शुभ नामकर्म के आस्रव कहते हैं
सूत्रार्थ-उससे विपरीत भाव शुभ नाम कर्मके आसव हैं । 'तत्' शब्द से पूर्वोक्त योग वक्रता और विसंवाद का ग्रहण होता है । उससे विपरीत अर्थात् मन, वचन और काय की सरलता होना तथा अविसंवाद-विसंवाद नहीं करना शुभ नाम कर्मका आसव है। पूर्व सूत्र के च शब्द का अध्याहार करना, जिससे अन्य भी शुभ नाम कर्मके आसवों का ग्रहण होता है, वह इस प्रकार है-धर्मात्मा पुरुषों को देखकर प्रसन्न होना, उनके प्रति सद्भाव करना उनको आदरपूर्वक अपने स्थान में लाना, पञ्चपरावर्तन