________________
३७६ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
मानुषतिर्यक्षु । नि:शीलव्रताः सानुकम्पहृदया जलराजितुल्यरोषा भोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यन्तरादिषु जन्म प्रतिपद्यन्ते । अपरमपि दैवस्यायुष श्रास्रवमाह
सम्यक्त्वं च ।। २१ ॥
उक्तलक्षणं सम्यक्त्वं देवस्यायुष प्रास्रवो भवतीति सम्बन्धः क्रियते । चशब्दः पूर्वोक्तसमुच्चयार्थः । श्रविशेषाभिधानेऽप्यत्र सौधर्मादिविशेषगतिर्भवति पृथग्योगकररणसामर्थ्यात् । यद्येवं तर्हि पूर्वसूत्रे य उक्त प्रस्रवविधिः सोऽविशेषेण प्राप्नोतीति, ततश्च सरागसंयमसंयमाऽसंयमावपि भवनवास्याद्यायुष प्रस्रव प्राप्नुत इति । नैष दोषोऽत एव तन्नियमसिद्धेः । यत एव सम्यक्त्वं सौधर्मादिष्विति नियम्यते तत एव तयोरपि ससम्यक्त्वयोर्नियमसिद्धिः । नासति सम्यक्त्वे सरागसंयम संयमाऽसंयमव्यपदेश इति । इदानीमशुभनामास्रवमाह
खाकर मरते हैं वे व्यन्तर, मनुष्य या तिर्यञ्च होते हैं । जो शील और व्रतों से तो रहित हैं किन्तु दयाशील हैं जल रेखा के समान जिनकी कषाय अल्प है वे व्यन्तर आदि में उत्पन्न होते हैं तथा भोग भूमिज जीव भी जो सम्यक्त्व रहित हैं वे व्यन्तर आदि में उत्पन्न होते हैं ।
और भी देवायु का आस्रव बताते हैं
सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन भी देवायु का आस्रव है ।
सम्यक्त्व का लक्षण कह दिया है, उससे देवायु का आसूव होता है ऐसा सम्बन्ध करना, च शब्द पूर्वोक्त समुच्चय के लिये है । सामान्य से देवायु का आसूव करने पर भी पृथक् सूत्र करने से सिद्ध होता है कि सम्यक्त्व सौधर्म आदि वैमानिक देवायु का आसूव है ।
शंका- यदि ऐसी बात है तो पूर्व सूत्र में जो आसूव विधि कही वह समानरूप से प्राप्त होती है, और इस तरह तो सरागसंयम और संयमासंयम भी भवनवासी आदि आयु का आसूव सिद्ध होगा ?
समाधान - ऐसा नहीं है, इसीसे वह नियम सिद्ध होता है, अर्थात् जिस कारण से यह नियम बनाया है कि सम्यक्त्व सौधर्मादि बैमानिक देवायुका आसू है उसी नियम से सरागसंयम और संयमासंयम भी वैमानिक देवायु के आसूव हैं ऐसा सिद्ध होता है । सम्यक्त्व के अभाव में सरागसंयम और संयमासंयम यह नाम ही नहीं बनता ।
अब अशुभ नामकर्म के आसू बताते हैं