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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३७५ चरणमिति यावत् । सरागसंयमश्च संयमाऽसयमश्चाकामनिर्जरा च बालतपश्च सरागसंयंमसंयमाऽ-. संयमाऽकामनिर्जराबालतपांसि । देवानामिदं देवमायुस्तस्य संयमादयः शुभपरिणामा प्रास्रवहेतवो भवन्तीति संक्षेपः। विस्तरस्तु कल्याण मित्रसम्बन्धायतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शनाऽनवद्यप्रोषधोपवासतपोभावनाबहुश्रुतागमपरत्वकषायनिग्रहपात्रदानपीतपद्मलेश्यापरिणामधर्मध्यानमरणतादिलक्षणः सौधर्माद्यायुषः । अव्यक्तसामायिकविराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषो महद्धिकमानुषस्य वा पञ्चाणुव्रतधारिणः । अविराधितसम्यग्दर्शनास्तिर्यङ मनुष्याः सौधर्मादिष्वच्युतावसानेषूत्पद्यन्ते। विनिपतितसम्यक्त्वास्तु भवनादिषु । अनधिगतजीवाऽजीवा बालतपसोऽनुपलब्धतत्त्वस्वभावा अज्ञानकृतसंयमाः सङ क्लेशभावविशेषात्केचिद्भवनवासिव्यन्तरादिषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च । अकामनिर्जराः क्षुत्तृष्णानिरोधब्रह्मचर्यभूशय्यामलधारिणः परितापादिभिः परिखेदितमूर्तयश्चारकनिरोधबन्धनबद्धा दीर्घकालरोगिणोऽसङ क्लिष्टास्तरुगिरिशिखरपातिनोऽनशनज्वलनप्रवेशनविषभक्षणधर्मबुद्धयो व्यन्तरमिथ्याज्ञानपूर्वक आचरण करना बालतप है। सराग संयम आदि पदों में द्वन्द्व समास जानना। ये सराग संयमादिक देवायुकर्म के आस्रव हैं यह संक्षेप से कथन हुआ। विस्तार से कहते हैं-आत्मकल्याण में सहायक मित्र का समागम होना, जिन मन्दिर आदि आयतनों की सेवा करना, सद्धर्म का सुनना, गौरव दर्शन, निर्दोष प्रोषधोपवास करना, तपोभावना, बहुश्रुतत्व, आगम में तत्परता, कषाय निग्रह, पात्रदान, पीत पद्म लेश्या से युक्त धर्म्यध्यानपूर्वक मरण होना इत्यादि सौधर्म आदि स्वर्गों के देवायु के आस्रव जानने । पञ्च अणुव्रतों का धारक यदि अव्यक्त सामायिक करता है, सम्यग्दर्शन की विराधना करता है तो वह भवनत्रिककी देवायु का आस्रव करता है अथवा महावैभवशाली मनुष्यायु का आस्रव करता है । जिन्होंने सम्यग्दर्शन की विराधना नहीं की है ऐसे मनुष्य और तिर्यंच सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और जो सम्यक्त्व से च्युत होते हैं तो भवनत्रिक में उत्पन्न होते हैं। जो व्यक्ति जीव अजीव तत्त्वों को नहीं जानते, बालतप करते हैं, तत्त्व से अनभिज्ञ हैं, अज्ञान से संयम पालते हैं वे संक्लेश भाव से कोई तो भवनवासी या व्यन्तर होते हैं, कोई सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं अथवा मनुष्य तिर्यञ्चों में भी उत्पन्न होते हैं। भूख प्यासको सहना, ब्रह्मचर्य पालना, पृथिवी पर सोना, मलको धारणा, परिताप सहना इत्यादि क्रियाओं से खेदित शरीर वाले तथा बेड़ी जेल आदि में डाले गये हैं, अथवा कारागृह में रहने के कारण उपर्युक्त भूख, प्यास, भू शय्या, ब्रह्मचर्य आदि का अनिच्छा से पालन कर रहे हैं, तथा जो दीर्घकाल से रोगी हैं तो भी क्लेश नहीं करते, यह धर्म क्रिया है ऐसा समझकर वृक्ष से पर्वत से गिरकर मरते हैं, उपवास कर, अग्नि में प्रविष्ट होकर, विष
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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