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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो मानुषस्यास्रवः, किं ताल्पारम्भपरिग्रहत्वं चेत्यर्थः सिद्धो भवति । सर्वेषां ग्रहणं प्रागुक्तनारकतर्यग्योनमानुषायुषां संग्रहार्थम् । अथ मतमेतत्-पृथक्करणादेवातिक्रान्तायुस्त्रयसंग्रहः सिध्यति । यदि मानुषायुरास्रव एवाभीष्टः स्यात्तदा तत्रैव क्रियेत । तस्मात्सर्वेषां ग्रहणमनर्थकमिति । तन्न । किं कारणम् ? भोगभूमिजापेक्षया देवायुषोऽपि संग्रहार्थत्वात् । भोगभूमिजानां प्राणिनां यन्नि शीलवतत्वं तदेवस्यायुष प्रास्रवो भवतीत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शनार्थं सर्वेषामित्युच्यत इत्यर्थः । इदानीं देवायुरास्रवमाह
सरागसंयमसंयमासंयमाऽकामनिर्जराबालतपांसि वैवस्य ॥२०॥ सरागसंयमः सरागचारित्रनुक्तम् । संयमाऽसंयमोऽपि विरताऽविरतपरिणामो व्याख्यातः । स्वेच्छामन्तरेण कर्मनिर्जरणमकामनिर्जरा। बालस्याऽज्ञस्य तपःक्लेशो बालतपो मिथ्याज्ञानपूर्वकमा
समुच्चय होता है । उससे यह सिद्ध होता है कि केवल निःशील व्रतत्व ही मनुष्यायका आसव नहीं है अपितु अल्प आरम्भ परिग्रह भी है। 'सर्वेषाम्' पद से पहले कहे हुए नारक, तिर्यंच और मनुष्य के आयुका संग्रह हो जाता है ।
शंका-इस सूत्रको पृथक् बनाने से ही ज्ञात होता है कि पहले के तीनों आयुका संग्रह करना है । यदि केवल मनुष्य आयुका आसव ही लेना इष्ट होता तो मनुष्य आयु के सूत्र में ही इसका उल्लेख करते, इसलिए उक्त अर्थ अर्थात् नरक आदि आयुके आसव सिद्ध करने के लिए यह सूत्र आया है ऐसा सिद्ध होने से 'सर्वेषाम्' पद तो व्यर्थ ही ठहरता है ?
समाधान-ऐसा नहीं है । 'सर्वेषाम्' पद तो भोगभूमिज जीवों की अपेक्षा देवायुका आसव भी निःशीलव्रतत्व से होता है । इस तरह के अर्थ का संग्रह करने हेतु अर्थात् चारों आयु के संग्रह हेतु 'सर्वेषाम्' पदका ग्रहण हुआ है। भोगभूमिज जीवों के जो निःशीलव्रतत्व है उससे देवायु का आसव होता है, इस अर्थको बतलाने के लिए उक्त पद प्रयुक्त हुआ है। ___ अब देवायु के आसव को सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ-सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बालतप ये देव आयके आसव हैं।
सराग चारित्रको सराग संयम कहते हैं, इसका कथन हो चुका है। संयमासंयम विरताविरत परिणाम है इसका वर्णन भी किया है । अपनी इच्छा के बिना कर्मोकी निर्जरा हो जाना अकाम निर्जरा है। अज्ञके तपक्लेश को बालतप कहते हैं अर्थात्