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षष्ठोऽध्यायः
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न्द्रियव्यपरोपणपरांगनावस्कन्दना दिर्नपु' सकवेदनीयस्यास्रव इति । इदानीं मोहानन्तरोद्दिष्टस्यायुश्चतुष्टयस्यास्रवो वक्तव्यस्तत्र चाद्यस्य तावन्नियतकालपरिपाकस्यायुषः कारण प्रदर्शनार्थमिदमुच्यते
बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ||१५||
बहुशब्दस्य सङ्ख्यावाचिनो वैपुल्यवाचिनश्च ग्रहणं विशेषाऽनभिधानात् । प्रारम्भो हिंसनशीलानां कर्मोच्यते । परिग्रहो ममेदमिति सङ्कल्पः । श्ररम्भाश्च परिग्रहाश्चारम्भपरिग्रहाः । बहव प्रारम्भपरिग्रहा यस्य पुंसः स बह्वारम्भपरिग्रहः । अथवा आरम्भश्च परिग्रहश्वारम्भपरिग्रहौ, बहू आरम्भपरिग्रहौ यस्य स तथोक्तस्तस्य भावो बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष आस्रवो भवतीति संक्षेपः। तद्विस्तरस्तु हिंसादिक रकर्माऽनवरतप्रवर्तनपरस्वहरण विषया तिगृद्धिकृष्णले श्याभिजात रौद्रध्यानमरणकालता दिलक्षणो विज्ञेयः । इदानीं तैर्यग्योनस्यायुष प्रस्रवमाह -
माया तैर्यग्योनस्य ॥ १६ ॥
कौतुक कम होना, स्वस्त्री में सन्तोष इत्यादि पुरुष वेद के आसूव हैं। अधिक कषाय, दूसरों के गुप्त इंद्रिय का नाश करना, परस्त्री सेवन इत्यादि नपुंसक वेदके आसू हैं ।
अब मोहनीय कर्मके अनन्तर कहा गया जो चार प्रकार का आयुकर्म है उसका आसूव कहते हैं, उनमें जो नियतकाल में विपाक वाली है ऐसी पहली नरकायुका आसूव बतलाते हैं
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सूत्रार्थ - बहुत आरम्भ बहुत परिग्रह नरक आयुका आसूव है ।
बहु शब्दका संख्या अर्थ और विपुल अर्थ ऐसे दोनों अर्थ ग्रहण करना, इनमें कोई विशेष अर्थ भेद नहीं है । हिंसा शील व्यक्ति की क्रिया आरम्भ कहलाता है । यह मेरा है ऐसा संकल्प परिग्रह कहलाता है । आरम्भ और परिग्रह पद में द्वन्द्व समास करना फिर बहुत हैं आरम्भ परिग्रह जिसके ऐसा बहुब्रीहि समास करना, पुनः त्व प्रत्यय करना, इस तरह बहुत आरम्भ और परिग्रह नरकायुका आस्रव ऐसा संक्षेप कथन है । विस्तार से कहते हैं - हिंसादि क्रूर कार्यों को सतत् करना, पराया धन चुराना, विषयों में अत्यंत आसक्ति, कृष्ण लेश्या से उत्पन्न हुए रौद्र ध्यान से मरण करना अर्थात् मरते समय रौद्रध्यान होना इत्यादि नरकायु के आसूव हैं ।
अब तिर्यंच आयुके आसूव कहते हैं