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________________ ३७० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तीवश्चासौ परिणामश्च तीव्रपरिणामः । चारित्रमुक्तलक्षणम् । तन्मोहयतीति चारित्रमोहः । चारित्रस्य मोहनं वा चारित्रमोहः। तस्य चारित्रमोहस्य । कषायोदयनिमित्तो यस्तीव्रपरिणामः स आस्रव इति विज्ञेयः । स चावान्तरभेदापेक्षयाऽनेकधा । तद्यथा-स्वपरकषायोत्पादनतपस्विजनवृत्तदूषणसङ क्लिष्टलिङ्गवतधारणादि: कषायवेदनीयस्यास्रवः । सद्धर्मोत्प्रहसनदीनाभिहासबहुविप्रलापोपहासशीलतादिहस्यिवेदनीयस्य । विचित्रक्रीडनपरता व्रतशीलाऽरुच्यादी रतिवेदनीयस्य । पराऽरतिप्रादुर्भावनरतिविनाशनपापशीलसंसर्गादिररतिवेदनीयस्य । स्वशोकाऽऽमोदशोचनपरदुःखाविष्करणशोकप्लुताभिनन्दनादिः शोकवेदनीयस्य । स्वभयपरिणामपरभयोत्पादननिर्दयत्वत्रासनादिर्भयवेदनीयस्य । सद्धर्मापन्नचतुवर्णविशिष्टवर्गकुलक्रियाचारप्रवणजुगुप्सापरिवादशीलत्वादिर्जुगुप्सावेदनीयस्य । प्रकृष्ट क्रोधपरिणामातिमानितेाव्यापाराऽलीकाभिधायिताऽतिसन्धानपरत्वप्रवृद्धरागपरांगनागमनादरवामलोचनाभावाभिष्वङ्गतादिः स्त्रीवेदनीयस्य । स्तोकक्रोधानुत्सिक्तत्वस्वदारसन्तोषादिः पुवेदनीयस्य । प्रचुरकषायगुह्य कहते हैं, तीव्र परिणाम शब्दका अर्थ कह दिया है। तीव्र परिणाम पद. में कर्मधारय समास है । चारित्र का लक्षण कह आये हैं (प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में) उस चारित्र को जो मोहित करे अथवा चारित्र का जो मोह है उसे चारित्र कहते हैं । कषाय के उदय के निमित्त से जो तीव्र परिणाम होता है वह चारित्र मोहनीय कर्मका आसव है । इसके अन्तर भेद अनेक हैं । आगे इसीको कहते हैं अपने को और दूसरों को कषाय उत्पन्न कराना, तपस्वी जनों के आचरण में दूषण लगाना, संक्लिष्ट परिणाम से लिंग और व्रतोंका धारण करना इत्यादि कषाय कर्मके आसव हैं। धर्मात्मा की हंसी करना, दीन की हंसी करना, बहुत बोलना, हंसने की आदत इत्यादि हास्यकर्म के आस्व हैं। विचित्र विचित्र क्रीड़ा करने में तत्पर होना, व्रत और शील में अरुचि इत्यादि रति कर्मके आसव हैं । दूसरों को अरति पैदा करना, रतिका नाश, पाप करने कालों की संगति इत्यादि अरति कर्मके आसव हैं । अपने शोक को अच्छा मानना दूसरों को दुःख उत्पन्न कराना, शोक करने वालों की प्रशंसा करना इत्यादि शोक कर्मके आसव हैं । खुद भय करना, दूसरों को भय उत्पन्न कराना, निर्दयता, त्रास देना इत्यादि भय कर्मके आसव हैं। धर्मात्मा, चतुर्वर्ण, विशिष्ट वर्ग, कुल आदि के क्रिया और आचार में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, अपवाद करने का स्वभाव इत्यादि जुगुप्सा कर्मके आसव हैं। अत्यन्त क्रोध परिणाम अति गर्व, ईर्ष्या, असत्य भाषण, अतिसंधान परता अर्थात् छल कपट प्रपञ्च में तत्परता, बढ़ता राग, परायी स्त्री के यहां जाने में आदर, स्त्री जैसे हावभाव करना इत्यादि स्त्री वेद के आसव हैं । अल्प क्रोध, उद्रेक या
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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