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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३६७ विनयप्रदानादीनां ग्रहणम् । व्यक्तयर्थात्समासाऽकरणाच्च । भूतग्रहणादेव सिद्धेनं तिग्रहणं तद्विषयानुकम्पाप्राधान्यख्यापनार्थम् । सत्प्रशस्तं वेद्यं सद्वेद्यं सुखफलं कर्मोच्यते । तस्यैते भूतव्रत्यनुकम्पादिविशेषा आस्रवा विशुध्यङ्गत्वे सति भवन्त्यन्यथा तद्भावविरोधात्तेषामसद्वेद्यास्रववत् । तदुक्तम् विशुद्धिसङ क्लेशाङ्ग चेत्स्वपरस्थं सुखासुखम् । पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद्वयर्थस्तवार्हतः ।। इति ।। मोहविशेषस्यास्रवमाह 'इति' शब्द प्रकार वाची है, उससे अहंत आदि की पूजा करना, बाल, वृद्ध, तपस्वी जनों की वैयावृत्य करना, परिणाम में ऋजुता होना, विनय और प्रदान आदिका ग्रहण होता है। तथा सूत्र में भूत व्रत्यनुकम्पादि पद और क्षान्ति इत्यादि पद पृथक्-पृथक रखे हैं उन पदोंका समास नहीं किया है उससे अर्हतपूजा आदि जो सातावेदनीय के आसव हैं उनका भी ग्रहण हो जाता है । यद्यपि भूत शब्दके ग्रहण से अर्थ सिद्ध होता है तथापि व्रती शब्दका ग्रहण व्रतियों की अनुकम्पा प्रधान है इस बातको बतलाने के लिये किया गया है। प्रशस्त वेद्य सत् वेद्य है सुख जिसका फल है ऐसा कर्म सत् वेद्य-सातावेदनीय कर्म कहलाता है। उस सातावेदनीय कर्मके ये भूतव्रती अनुकम्पा आदि विशेष आसव विशुद्धि का अंग होने पर होते हैं अन्यथा नहीं ऐसा जानना क्योंकि बिना विशुद्धि के इनका सातावेदनीय के आसव के साथ विरोध आता है, जैसे असाता के आसूव । अर्थात् विशुद्धि के अभाव में जैसे असाता वेदनीय कर्मका आसव होता है वैसे ही भूत अनुकम्पा आदि करते हुए भी यदि परिणामों में विशुद्धि नहीं है तो उससे सातावेदनीय का आसव नहीं होगा। ___ आप्तमीमांसा में स्वामी समंतभद्र कहते हैं कि-अपना अथवा परका सुख दुःख विशुद्धि तथा संक्लेश का अंग है-तत्कारण-कार्य वा स्वभावरूप है-तो वह सुख दुःख यथाक्रम पुण्य पापके आसव-बंधका हेतु है, और यदि विशुद्धि तथा संक्लेश दोनों में से किसी का भी अंग-कारण कार्य स्वभाव रूप नहीं है तो हे भगवन् ! आपके मतमें वह व्यर्थ कहा है-उसका कोई फल नहीं है । भावार्थ-सुख और दुःख दोनों ही, चाहे अपने को हो या दूसरों को। ये दोनों ही कथंचित् पुण्यरूप आसव बंधके कारण हैं, विशुद्धि का अंग (विशुद्धि का कारण या कार्य या स्वभावरूप) होने से, तथा ये दोनों कथंचित् पापरूप आसव बंधके कारण हैं,
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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