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________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती गृहिणश्च देशसंयता इति । अनुकम्पनमनुकम्पा दया करुणेति यावत् । भूतानि च वतिनश्च भूतव्रतिनस्तेष्वनुकम्पा। आत्मीयस्य वस्तुनः परानुग्रहबुद्धयाऽतिसर्जनं दानमिति कथ्यते । पूर्वोपात्तकर्मोदयवशादक्षीणाशयः सरागः साम्परायिक निवारणं प्रत्यागूर्णमनाः । सह प्रशस्तेन रागेण वर्तते स सराग इति कथ्यते । प्राणिष्वेकेन्द्रियादिषु चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु चाऽशुभप्रवृत्तेविरतिः संयम इति निगद्यते । सरागस्य संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः । आदिशब्देन संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपसां सङ्गहः । सरागसंयम आदिर्येषां ते सरागसंयमादयः । निरवद्यक्रियाविशेषानुष्ठानं योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । दण्डभावनिवृत्त्यर्थं च तस्य ग्रहणं क्रियते । भूतव्रत्यनुकम्पादानं च सरागसंयमादयश्च भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादयस्तेषां योगो भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः । शुभपरिणामभावनाबलात् क्रोधादिनिवृत्तिः क्षमा शान्तिरित्यर्थः । स्वद्रव्यात्यागपरद्रव्यापहरणसान्नयासिकनिह्नवादीनां लोभप्रकाराणामुपरमः शौचमिति निश्चीयते । निर्लोभः पुमान् शुचिस्तस्य भावः कर्म वा शौचमिति व्युत्पत्तेः । इतिशब्दात्प्रकारवाचिनोऽर्हदादिपूजाबालवृद्धतपस्विवैयावृत्योद्योगार्जवमुक्त हो चुके हैं ऐसे संयत साधु और देशव्रती गृहस्थ अनुकम्पा, दया, करुणा ये सब एकार्थवाची शब्द हैं । भूत और व्रतियों में अनुकम्पा करना । अपने पदार्थ का परका अनुग्रह करने के लिए त्याग कर देना 'दान' कहलाता है। पूर्वके उपार्जित कर्मके वश से अभी जिनका राग नष्ट नहीं हुआ किन्तु उस रागादि कषायों को रोकने में जो लगे हुए हैं ऐसे साधुको सराग कहते हैं, प्रशस्त राग के साथ जो रहता है वह सराग है ऐसा शब्दार्थ है । एकेन्द्रिय आदि जोवों में और चक्षु आदि इन्द्रियों में जो अशुभ प्रवृत्ति है उससे विरक्त होना संयम है, सराग का संयम सराग संयम कहलाता है, आदि शब्द से संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल तपका ग्रहण हो जाता है । सराग संयम है आदि में जिनके वे सराग संयमादि हैं। निर्दोष क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं, अर्थात् समाधि-भली प्रकार से सावधानीपूर्वक उपयोग की प्रवृत्ति होना। योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची शब्द हैं । दूषण की निवृत्ति के लिये योग का ग्रहण किया है अथवा काय मन आदि की उद्दण्ड भावकी निवृत्ति के लिए योग शब्द लिया है । सम्पूर्ण प्राणिगण तथा व्रतियों में अनुकम्पा करना, दान देना और सराग संयमादि पालना, इन भूत, व्रती, अनुकम्पा, दान, सराग संयमादि का योग सातावेदनीय का आसव है । शुभ परिणाम के बल से क्रोधादि का त्याग क्षमा या क्षान्ति कहलाती है । अपने द्रव्यका त्याग नहीं करना परके द्रव्यका अपहरण करना, धरोहर को हड़पना इत्यादि लोभ के प्रकार हैं, इन लोभों से दूर होना 'शौच' है। निर्लोभी पुरुष 'शुचि' कहलाता है, शुचिका भाव या कर्म शौच है इसप्रकार शौच शब्दकी निष्पत्ति है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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