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षष्ठोऽध्यायः
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परस्थान्युभयस्थानि चात्मनोऽसद्वेद्य कर्मणो दुःखफलस्यास्रवा भवन्ति सङ् क्लेशाङ्गत्वात् । प्रसङ क्लेशाङ्गानां तु तेषां सर्वथा तदनास्रवत्वाद्बलोत्पाटोपवासादिवत् । सद्वेद्यास्रवभेदमाह
भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्यस्य ॥ १२ ॥
आयुर्नामकर्मोदयवशात्तासु तासु योनिषु भवन्तीति भूतानि सर्वे प्राणिन इत्यर्थः । व्रतान्यहिंसादीनि वक्ष्यन्ते । व्रतानि विद्यन्ते येषां ते व्रतिनः । ते च द्विविधा - प्रभिमुक्तगृहाभिलाषाः संयताः,
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असद्द्द्वेद्य है अर्थात् असातावेदनीय द्रव्य कर्म । ये दुःख आदिक अपने में किये गये हों, परमें किये गये हों एवं उभय में किये गये हों, ये सर्व ही आत्माको दुःख फल वाले असातावेदनीय कर्मका आसूव कराते हैं, क्योंकि संक्लेशों के कारण हैं । जो दुःख रूप भाव संक्लेश हेतु नहीं हैं वे आसूव के कारण नहीं होते अथवा संक्लेश रहित दुःख परिणाम से आसू नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए, जैसे केशलोंच उपवास आदि क्रिया से दुःख होता है किन्तु संक्लेश नहीं होने के कारण वह दुःख आसूव नहीं कराता । भाव यह है कि जैसे कोई वैद्य है चिकित्सक है और साधु पुरुष के फोडा, व्रण आदि को जबरन दबाकर पीप निकालता है, अथवा कोई शल्य चिकित्सक, चीरा फाड़ी भी करता है उस क्रिया में दुःख या पीड़ा अवश्य होती है किन्तु इतने मात्र से वैद्यादिको पापासूव नहीं होता, क्योंकि उसके संक्लेशभाव दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के भाव नहीं हैं अपितु पीड़ा नष्ट करने के भाव हैं उस असंक्लेशरूप भाव के कारण उसको आसूव नहीं आता, अथवा कोई आचार्यादिक उपवासादिका अनुष्ठान शिष्यादि से कराते हैं। उसमें शिष्यादि को दुःख भी होता है किन्तु क्लेश नहीं होने के कारण उन आचार्यादि कोपापासूव नहीं होता, अतः निश्चित होता है कि संक्लेश का जो कारण है वह दुःख परिणाम असाता कर्मका आसूव कराता है ।
अब सातावेदनीय कर्मका आसूव बताते हैं
सूत्रार्थ - प्राणियों पर तथा व्रतियों पर अनुकम्पा करना, दान देना, सराग संयम, योग, क्षमा और शौच ये सातावेदनीय कर्मके आसूव हैं ।
आयुकर्म के उदय के वश से उन उन योनियों में जो होते हैं वे भूत' कहलाते हैं अर्थात् सभी प्राणियों की भूत संज्ञा है । अहिंसादिक व्रत हैं इनका लक्षण आगे कहेंगे । जिनके व्रत हैं वे व्रती कहलाते हैं व्रती दो प्रकार के हैं घरकी अभिलाषा से जो