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________________ ३६४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो लक्षणः परिणामो वैक्लव्यविशेषो मोहकर्मविशेषोदयापेक्षः शोक इति कथ्यते । परिभवपरुषवचनश्रवणादिनिमित्तापेक्षया कलुषान्तःकरणस्य तीव्रपरिणामस्ताप इत्यभिधीयते । परितापनि मित्तेनाश्रु. पातेन प्रचुरविलापेनाङ्गविकारादिना चाभिव्यक्त क्रन्दनं प्रत्येतव्यम् । आयुरिन्द्रियबलप्राणानां परस्परतो वियोगकरणं वध इत्यवधार्यते । सङ क्लेशपरिणामालम्बनं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पाप्रचुरं परिदेवनमिति परिभाष्यते । यद्यपि दुःखजातीयत्वाच्छोकादीनां दुःखग्रहणादेव ग्रहणं सिद्धं, तथापि दुःखविषयास्रवाऽसङ्खये यलोकभेदसम्भवात् दुःखमित्युक्त विशेषाऽनिर्जानात्कतिपयविशेषदर्शनेन तद्विवेकप्रतिपत्त्यर्थं शोकाद्युपादानं क्रियते । गौरित्युक्त विशेषाऽनिर्जाने तत्प्रतिपादनार्थं खण्डमुण्डशुक्लकृष्णादिविशेषणोपादानवत् । दुःखं च शोकश्च तापश्च क्रन्दनं च वधश्च परिदेवनं च दुःखशोकतापक्रन्दनवधपरिदेवनानि । आत्मा स्वदेहस्थचेतनपर्यायः । सोऽपि पिण्डात्मैवोच्यते । तस्यैव दुःखादिसद्भावात् । तयोर्द्वयमुभयमुच्यते । आत्मा च परश्चोभयं च तान्यात्मपरोभयानि । तेषु तिष्ठन्तीत्यात्मपरोभयस्थानि । असदप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यं द्रव्यकर्मोच्यते । तान्येतानि दुःखादीन्यात्मस्थानि कारण जो होता है वह शोक कहलाता है। तिरस्कार होने से, कठोर वचन सुनना इत्यादि निमित्त से कलुषित मनवाले व्यक्ति के तीव्र परिणाम होते हैं वह ताप है । परिताप के कारण अश्रु गिराना, प्रचुर विलाप करना अंग में विकार इत्यादि से प्रगट रूप सेना क्रन्दन है। आयु इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास का परस्पर में वियोग करना वध है । जिसमें संक्लेश परिणामका अवलंबन है, अपने और परके अनुग्रह की अभिलाषा युक्त है, जिसके सुनने से दूसरों को दया आ जाय ऐसा रुदन करना परिदेवन कहलाता है। यद्यपि शोक आदिक सब दुःख जातीय होने से दुःख ग्रहण से उनका ग्रहण हो जाता है तथापि दुःख विषयक आस्रव असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं इसलिये 'दुःख' कहने मात्र से विशेष ज्ञान नहीं हो पाता, कुछ-कुछ विशेषता दिखलाने से तत् संबंधी बोध हो जाता है अतः शोक, ताप आदि दुःख भेदों को ग्रहण किया है। जैसे गाय ऐसा कहने पर विशेष निश्चय नहीं हो पाता अतः उसका प्रतिपादन करने हेतु खण्डी गाय या खण्ड बैल है तथा यह मुण्डी है, काली है सफेद है इत्यादि विशेषणों का ग्रहण किया जाता है । दुःख आदि पदों में द्वन्द्व समास हुआ है। अपने शरीर में स्थित जो चेतन पर्याय है वह आत्मा है शरीर और आत्मा मिलकर संसारी जीव की पर्याय होती है, और इस तरह शरीर तथा आत्माकी मिली जो पर्याय है उस रूप आत्माके ही दुःख आदि परिणाम संभव हैं। अपने से अन्यको पर कहा है, तथा उन दोनों को उभय कहते हैं । आत्मा, पर और उभय इस तरह ये तीन हुए। उनमें जो स्थित हैं वे 'आत्मापरोभयस्थानि' हैं । असत् अप्रशस्तको कहते हैं, अप्रशस्त जिसका वेदन है वह
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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