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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३६३ प्रदोषश्च निह्नवश्च मात्सर्य चान्तरायश्चासादनं चोपघातश्च प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तगयाऽऽसादनोपघाताः । तयोः प्रदोषादयस्तत्प्रदोषादयः। आस्रव इति वर्तते । ततो यथा ज्ञानविषयाः प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्यास्रवास्तथा दर्शनविषया दर्शनावरणस्यास्रवा भवन्ति । तथा ज्ञानदर्शनवत्सु पुरुषेषु तत्साधनेषु च पुस्तकादिपु प्रदोषादयस्तत्प्रदोषादिग्रहणेनैव गृह्यन्ते तन्निमित्तत्वादिति बोद्धव्यम् । असद्वेद्यास्रवप्रदर्शनार्थमाह दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्व यस्य ॥११॥ अनिष्टसंयोगेष्टवियोगाऽनिष्टनिष्ठुरश्रवणादिबाह्यसाधनापेक्षादसवैद्यकर्मोदयादुत्पद्यमानः पीडालक्षणः परिणामो दुःखमित्युच्यते । अनुग्राहकस्य बान्धवादेः सम्बन्धविच्छेदे तद्गताशयस्य चिंताखेद है कि 'तत्' उस ज्ञान और दर्शनका प्रदोष, निह्नव आदि करने से ज्ञानावरणकर्म और दर्शनावरणकर्म का आसव होता है। तत् शब्द से ज्ञानदर्शन गुण लिये हैं उनमें दोष लगाना, उनको छिपाना, उनको नष्ट करना इत्यादि से ज्ञानावरण दर्शनावरणकर्म का आसव बंध होता है। प्रदोष आदि पदोंका द्वन्द्व समास करके पुनः तत् शब्दके साथ तत्पुरुष समास करना चाहिए । आसव का प्रकरण है, उससे जो ज्ञानविषयक प्रदोष आदि किये जाते हैं। उनसे ज्ञानावरण कर्मका आसव होता है और दर्शनविषयक जो प्रदोष आदि किये जाते हैं उनसे दर्शनावरण कर्मका आसव होता है। तथा ज्ञानवान दर्शनवान पुरुषों में एवं ज्ञानदर्शन के साधनभूत पुस्तक आदि के विषयों में प्रदोष करना निह्नवादि करना यह सर्व ही ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मके आसव हैं, इनका ग्रहण भी तत्प्रदोष आदि से हो जाता है । क्योंकि वे भी ज्ञानावरणादि के कारण हैं । असातावेदनीय कर्मके आसव बतलाते हैं सूत्रार्थ-दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवनको खुद करना या दूसरों से कराना अथवा दोनों करना असातावेदनीय कर्मका आसव है। अनिष्ट संयोग होने से, इष्ट का वियोग होने से, अनिष्ट और कठोर शब्द सुनने से इत्यादि बाह्य कारणों की अपेक्षा लेकर असाता वेदनीय कर्मके उदय से उत्पन्न हुआ जो पीड़ा रूप परिणाम है उसे दुःख कहते हैं । अनुग्रह करने वाले बन्धु आदि जनों का संबंध छूट जाने पर उनका स्मरण आदि से उन्हीं में जिनका चित्त जा रहा है ऐसे पुरुष के जो चिंता खेदरूप परिणाम होता है विकलता आती है मोहकर्म के उदय के
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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