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________________ ३६२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रवर्तनादास्रवाधिकरणत्वमेषामवसीयते । एवं सामान्यतः साम्परायिकास्रवभुक्त्वाऽधुना ज्ञानदर्शनावरणकर्मणोरास्रवं विशेषेणाह तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायाऽऽसावनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥ मत्यादिज्ञानपञ्चकस्य कीर्तने कृते कस्यचिदव वतोऽन्तः प्रदुष्टत्वं प्रदोषः। यत्किञ्चित्परनिमितमभिसन्धाय नास्ति न वेयीत्यादिज्ञानस्य व्यपलपनं वंचनं मिह्नवः । कुतश्चित्कारणात्स्वयमभ्यस्तस्य दानार्हस्यापि ज्ञानस्य योग्यायाऽप्रदानं मात्सर्यम् । कलुषेणात्मना ज्ञानस्य व्यवच्छेदकरणमन्तरायः । वाक्कायाभ्यां परप्रकाशज्ञानस्य वर्जनमासादनम् । प्रशस्तज्ञानस्य दूषणोद्भावनमुपघातः । आसादनोपघातयोर्भेदाभाव इति चेन्न-कथञ्चिद्भेदोपपत्तेः । सतो हि ज्ञानस्य विनयप्रकाशनादिगुणकीर्तनाऽननुष्ठानमासादनमुच्यते । उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्रायप्रत्ययमनयोर्भेदः । तदित्यनेनाऽप्रकृतयोरपि ज्ञानदर्शनयोः प्रतिनिर्देशो ज्ञानदर्शनावरणयोरास्रव इति वचनसामर्थ्यात् । इन्द्रिय कषाय आदि रूप सांपरायिक आसव सामान्यतः कहा था, अब विशेषरूप से उक्त आसव का कथन करेंगे, उसमें प्रथम ही ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मोके आसव को बतलाते हैं सूत्रार्थ-प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके आसव हैं । मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानोंका किसी के द्वारा कथन किये जाने पर उसकी अनुमोदना प्रशंसा आदि नहीं करना, उस वक्त मौन इसलिये रह जाना कि उसके प्रति मनमें कलुषता है, इसतरह की प्रवृत्ति को प्रदोष कहते हैं । जिस किसी निमित्त से ठगने के अभिप्राय से 'मैं नहीं जानता' इत्यादि रूप ज्ञानका अपलाप करना निह्नव है। स्वयं अभ्यस्त है देने योग्य ज्ञान है किन्तु किसी कारणवश योग्य व्यक्ति के लिये भी ज्ञान नहीं देना मात्सर्य है। कलुषित मनसे ज्ञानका विच्छेद करना अन्तराय है। परके द्वारा ज्ञान प्रकाशित होने पर उसको वचन और शरीर से मना करना आसादन है । प्रशस्त ज्ञानमें दोष प्रगट करना उपधात है। . शंका-आसादन और उपघात में कोई भेद नहीं है ? समाधान-ऐसा नहीं है कथंचित् भेद है । विद्यमान ज्ञानका विनय नहीं करना, उसको प्रगट नहीं करना, प्रशंसा नहीं करना इत्यादि तो आसादन है और ज्ञानको अज्ञानरूप ही कर देना, ज्ञानके नाशका अभिप्राय होना उपघात है इसतरह इन दोनों में भेद है। अप्रकृत भी ज्ञानदर्शन का निर्देश 'तत्' शब्द द्वारा किया गया है, क्योंकि 'ज्ञान दर्शनावरणयोः' इस पदकी सामर्थ्य से उक्त अर्थ प्रतीत हो जाता है। भाव यह
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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