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________________ ३६० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्वित्रिभेदाः परम् ॥६॥ .. निर्वर्तनादीनां शब्दानां कर्मसाधनानामर्थः कथ्यते । निर्वयंत इति निर्वर्तना निष्पादना। निक्षिप्यत इति निक्षेपः संस्थापना । संयुज्यत इति संयोगो मिश्रीकृतम् । निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तनमिति । अथवा भावसाधना एते निर्वर्तनं निर्वर्तना। निक्षिप्तिनिक्षेपः । संयुक्तिः संयोगः । निसृष्टिनिसर्ग इति । निर्वर्तना च निक्षेपश्च संयोगश्च निसर्गश्च निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गाः । द्वौ च चत्वारश्च द्वौ च त्रयश्च द्विचतुर्दित्रयः । ते भेदा येषां ते द्विचतुर्वित्रिभेदाः । परमुत्तरमजीवाधिकरणमित्यर्थः । यदा निर्वर्तनादयः शब्दाः कर्मसाधनास्तैरिहानुवर्तमानस्याधिकरणशब्दस्य सामानाधिकरण्येन संबंध:निर्वर्तनवाधिकरणमित्यादि । यदा तु भावसाधनास्तदा वैयधिकरण्येन निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गलक्षणा भावाः परमजीवाधिकरणं विशिष्यन्तीत्यध्याह्रियमाणक्रियापदापेक्षया परशब्दस्य कर्मनिर्देशो व्याख्यायते । पूर्वसूत्रे प्राद्यमिति वचनादत्र सामर्थ्यात्तत्परत्वप्राप्तौ पुन: परवचनमनर्थकमिति चेत्तन्न सत्रार्थ-दो निर्वर्तना के भेद, चार प्रकार निक्षेप, संयोग दो प्रकार का और निसर्ग तीन प्रकार का, इस तरह अजीवाधिकरण के भेद होते हैं । निर्वर्तना आदि शब्दों का कर्मसाधनरूप अर्थ कहते हैं-'निर्वय॑ते इति निर्वर्तना' अर्थात् निष्पादना 'निक्षिप्यते इति निक्षेपः' स्थापना को निक्षेप कहते हैं। 'संयज्यते इति संयोगः' मिलाने को संयोग कहते हैं । 'निसृज्यते इति निसर्गः' प्रवर्तन को निसर्ग कहते हैं। अथवा ये भाव साधन शब्द हैं–निर्वर्तनं निर्वर्तना। निक्षिप्तः निक्षेपः । संयुक्तिः संयोगः । निसृष्टि: निसर्गः ऐसी निरुक्ति है। प्रथम ही निर्वर्तना आदि पदोंका द्वन्द्व समास करना, पुनः द्वि आदि संख्या वाचक पदोंका द्वन्द्व समास करके बहब्रीहि समास द्वारा भेद शब्दको जोड़ना चाहिए । 'परं' शब्द से अजीवाधिकरण के ये भेद हैं ऐसा अर्थ समझना । निर्वर्तना आदि शब्दोंको कर्मसाधनरूप जब मानते हैं तब यहां वर्तमान अधिकरण शब्दके साथ उनका सामानाधिकरण होता है जैसे निर्वर्तना रूप अधिकरण है, निक्षेपरूप अधिकरण है इत्यादि । तथा जब ये निर्वर्तना आदि शब्द भावसाधनरूप होते हैं तब विशिष्यन्ति क्रिया का अध्याहार करके निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग लक्षणरूप भाव अजीवाधिकरण को विशिष्ट करते हैं ऐसा वैयाधिकरण-भिन्न अधिकरणरूप से अधिकरण शब्दका संबंध करना चाहिए। विशिष्यन्ति क्रिया के अध्याहार करने से 'परम्' ऐसा सूत्रोक्त कर्म निर्देश (द्वितीय विभक्ति) सफल होता है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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