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षष्ठोऽध्यायः
[ ३५६ संरम्भस्तावत् क्रोधकृतकायसंरम्भो मानकृतकायसंरम्भो मायाकृतकायसंरम्भो लोभकृतकायसंरम्भः । क्रोधकारितकायसंरम्भो मानकारितकायसंरम्भो मायाकारितकायसंरम्भो लोभकारितकायसंरम्भः । क्रोधानुमतकायसंरम्भो मानानुमतकायसंरम्भो मायानुमतकायसंरम्भो लोभानुमतकायसंरम्भश्चेति द्वादशधा संरम्भः । एवं समारम्भारम्भावपि प्रत्येकं द्वादशधा। एते सम्पिण्डिताः कायविकल्पाः ट्त्रिंशत् । उक्त च
संरम्भो द्वादशधा क्रोधादिकृतादिकायसंयोगात् ।
प्रारम्भसमारम्भौ तथैव भेदास्तु षट्त्रिंशत् ।। इति ।। तथा वाङ मानसयोरपि प्रत्येक षट्त्रिंशत् । एते सर्व सम्पिण्डिता जीवाधिकरणास्रवभेदा अष्टोत्तरशतसङ्ख्या भवन्तिः । चशब्दोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनषोडशकषायभेदकृताऽन्तर्भेदसमुच्चयार्थः । तेन द्वात्रिंशदुत्तरचतुःशतगणनास्तद्विकल्पा हिंसापेक्षया वेदितव्याः । तद्वदनृताद्यपेक्षयापि योज्याः । इदानीमजीवाधिकरणप्रतिपत्त्यर्थमाह
छत्तीस भेद होते हैं। आगे संरंभ के भेद बताते हैं-क्रोधकृतकायसंरंभ, मानकृत कायसंरंभ, मायाकृतकायसंरंभ, लोभकृतकायसंरंभ। क्रोधकारितकायसंरंभ, मानकारित कायसंरंभ, मायाकारितकायसंरंभ, लोभकारितकायसंरंभ । क्रोधानुमतकायसरंभ, मानानुमतकायसंरंभ, मायानुमतकायसंरंभ, लोभानुमतकायसंरंभ । ये बारह भेद संरंभ के हुए, ऐसे समारम्भ और आरम्भ के बारह-बारह भेद करना, सब मिलकर काय संबंधी भेद छत्तीस होंगे । कहा भी है
क्रोधादि, कृतादि और कायादि के संयोग से संरंभ बारह प्रकार का हो जाता है तथा समारंभ आरम्भ भी इसी तरह बारह-बारह भेद युक्त हैं, इस प्रकार ये छत्तीस भेद होते हैं ॥१।। जैसे ये काय सम्बन्धी छत्तीस भेद हुए, वैसे वचन और मनसम्बन्धी भेद भी छत्तीस-छत्तीस हैं। ये सब मिलकर जीवाधिकरण आसवों के एकसौ आठ भेद होते हैं। सूत्र में चं शब्द आया है उससे अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन संबंधी क्रोधादि कषायों के सोलह भेदोंके निमित्त से होने वाले अन्तर्भेदों का समुच्चय होता है। वे भेद चारसौ बत्तीस हैं, ये सब हिंसाकी अपेक्षा समझना, इसी प्रकार असत्य, चोरी आदि की अपेक्षा चारसौ बत्तीस, चारसी बत्तीस भेद से अनेक भेद जीवाधिकरण आसव के जानने चाहिए।
अब अजीवाधिकरण का प्रतिपादन करते हैं