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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती स्मेति कारितमिति संज्ञायते । परेण यत्कृतं कारितं वाभ्युपगम्यते तदनुमन्यते स्मेत्यनुमतमिति कथ्यते । अभिहितलक्षणाः कषायाः क्रोधादयः। विशिष्यतेऽर्थोऽर्थान्तरादिति विशेषः । विशिष्टिा विशेषः । संरम्भश्च समारम्भश्चारम्भश्च योगश्च कृतश्च कारितश्चानुमतश्च कषायाश्च संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायास्तैः संरम्भादिविशेषराद्यं जीवाधिकरणं भिद्यत इति वाक्य शेषः । त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुरित्येते त्रयस्त्रिशब्दश्चतु:शब्दश्च सुजन्तास्त्रीन्वारास्त्रिः । चतुरो वारांश्चतुरिति सङ्ख्याया अभ्यावृत्ती कृत्वसुचिति वर्तमाने द्वित्रिचतुर्यः सुजित्यनेन सुच्प्रत्ययः । त्रिश्च त्रिश्च त्रिश्च चत्वारश्च ते। तैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुभिरिति एतेषां सरम्भादिभिर्यथाक्रममभिसम्बन्धः क्रियते । संरम्भसमारम्भारम्भास्त्रयः । योगास्त्रयः । कृतकारिताऽनुमतास्त्रयः । कषायाश्चत्वार इति । एतेषां गणनाभ्यावृत्तिः सुचा द्योत्यते । एकमेकं नयेदिति विगृह्य सङ्घय काद्वीप्सायामित्यनेन शसि कृते एकश इति सिध्यति । स च वीप्सार्थद्योतनः । एकैकं त्यादीन्भेदान्नयेदित्यर्थ । संरम्भादित्रयमिदं वस्त्वादौ निर्दिष्टं तद्भेदहेतुत्वादितरेषां योगादीनामानुपूर्व्यवचनं पूर्वापरविशेषणत्वात्कृतम् । तस्मात्क्रोधादिचतुष्टयकृतकारिताऽनुमतभेदात्कायादियोगानां संरम्भसमारम्भारम्भा विशेष्याः प्रत्येकं षट्त्रिंशद्विकल्पा भवन्ति । तत्र गया कार्य है उसकी अनुमोदना करना अनुमत है। क्रोधादि कषायों का कथन हो गया है। जिसके द्वारा एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से विशिष्ट (भिन्न) किया जाय वह विशेष कहलाता है । संरंभ आदि पदों में द्वन्द्व समास जानना, इन संरंभ आदि विशेषों से जीवाधिकरण के भेद होते हैं ऐसा वाक्य जोड़ना । 'त्रि स्त्रि स्त्रि श्चतुः' इस तरह तीन बार त्रि शब्द और एक चतुः शब्द ये सुजन्त हैं, त्रीन् वारान् त्रिः, चतुरो वारान् 'चतुः' इसप्रकार 'संख्याया अभ्यावृत्तौ कृत्वसुच्' इस व्याकरण के नियमानुसार कृत्व सुच् प्रत्यय का प्रसंग था किन्तु 'द्वित्रि चतुर्व्यः सुच्' इस सूत्र से सुच् प्रत्यय हुआ है । त्रि आदि पदों में द्वन्द्व समास है। त्रि आदि संख्या पदोंका संरंभ आदि के साथ क्रमसे सम्बन्ध किया गया है। भाव यह हुआ कि संरंभ, समारंभ आरम्भ ये तीन हैं। योग तीन हैं । कृतकारित अनुमत ये तीन हैं। कषाय चार हैं। इनकी गणनाभ्यावृत्ति सुच् प्रत्यय से प्रगट होती है। एक-एक में लगाना 'एकमेकं नयेत्' ऐसा विग्रह कर ‘संख्यैकात् वीप्सायाम्' इससे शस् प्रत्यय आने पर 'एकशः' शब्द बनता है यह वीप्सा अर्थको प्रगट करता है, अर्थात् एक-एक के तीन आदि भेद लगाना चाहिए । संरंभ आदि तीन पहले कहे, क्योंकि उनके भेदसे इतर जो योगादिक हैं उनमें भेद होता है, योग आदि का क्रमसे नाम पूर्वापर विशेषण होने से लिया है । तात्पर्य यह है कि क्रोधादि चार और कृत आदि तीन के भेद से कायादि योगों के संरंभ समारंभ और आरंभ से विशिष्ट सबंध करने पर प्रत्येक के छत्तीस