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षष्ठोऽध्यायः
[ ३५७ पर्यायाणामधिकरणत्वात् । नात्र जोवाऽजीवसामान्यमधिकरणत्वं विति, किं तर्हि-पर्याया हिंसाधुपकरणभावमापद्यमानाः । येन केनचित्पर्यायेण विशिष्टं द्रव्यमधिकरणं स्यादिति व्याख्यायते। ततः पर्यायव्यक्तीनां बहुत्वाद्बहुवचननिर्देशो युक्तः । प्रास्रवोऽत्र प्रकृतस्तस्येहार्थवशात् षष्ठयन्ततया परिणामोपपत्तेर्जीवाऽजीवा अधिकरणमास्रवस्येत्यभिसम्बन्धो वेदितव्यः । तत्र जीवाऽधिकरणभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह - आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषे.
स्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चकशः ॥८॥ प्रादौ भवमाद्यं प्रथमं जीवाधिकरणमित्यर्थः । प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवत: प्रयत्नावेशः संरम्भणं संरम्भ इत्युच्यते । साध्यायाः क्रियायाः साधनानां समभ्यासीकरणं समाहारः। समारम्भणं समारम्भ इति कथ्यते । प्रवर्तनं प्रक्रमणमारम्भणमारम्भ इत्याख्यायते । योगशब्दो व्याख्यातार्थः । स्वतन्त्रेणात्मना क्रियते स्मेति कृतं प्रादुर्भावितमित्युच्यते । परस्य प्रयोगमपेक्ष्य सिद्धिमापद्यमानं कार्यते
समाधानः-ऐसा नहीं है, यहां पर्यायें अधिकरणरूप स्वीकार की गयी हैं। जीव और अजीव सामान्य के अधिकरण नहीं बनाया, किन्तु पर्यायें हिंसादि के उपकरण भावको प्राप्त होती हैं, अर्थात् आसव का अधिकरण जीवादि की पर्यायें हैं, जिस किसी पर्याय से युक्त द्रव्य अधिकरण होता है, इसलिए पर्यायें बहुतसी होने के कारण सूत्र में बहुवचन प्रयुक्त हुआ है। यहां पर आसव का प्रकरण है उसका अर्थवश से षष्ठी विभक्तिरूप परिणमन कर जीव और अजीव अधिकरण 'आसवके' होते हैं ऐसा संबंध जोड़ना चाहिए।
अब जीवाधिकरण के भेदों का प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ-पहले जीवाधिकरण के भेद इस प्रकार हैं-तीन भेद संरंभ, समारंभ और आरम्भ ये हैं । तीन योग हैं । कृत, कारित, अनुमत ये तीन हैं। चार कषाय हैं, इनको परस्पर में मिलाने पर १०८ भेद होते हैं । आद्य अर्थात् पहला जीवाधिकरण । प्राण घात आदि में प्रमादी जीव के जो प्रयत्न होता है वह संरंभ है । करने योग्य कार्य के साधन जुटाना समारंभ है। प्रवर्तन, प्रक्रमण आरंभण और आरम्भ ये सब एकार्थवाची हैं, अर्थात् प्रारंभ करनेको आरम्भ कहते हैं। योग शब्दका अर्थ कह चुके हैं । स्वयं स्वतन्त्र होकर अपने द्वारा जो किया गया वह 'कृत' है । परकी अपेक्षा लेकर जिस कार्यको सिद्ध किया गया वह कारित है। परके द्वारा किया गया अथवा कराया