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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
प्रस्तूयन्ते तदधिकरणं द्रव्यमित्यर्थः । द्रव्यस्य शक्तिविशेषः सामर्थ्यं वीर्यमिति निश्चीयते । तीव्रश्च मन्दश्च ज्ञातश्चाज्ञातश्च तीव्रमन्दज्ञाताऽज्ञातास्ते च ते भावाश्च तीव्रमन्दज्ञाताऽज्ञातभावाः । ते चाधिकरणं च वीर्यं च तानि । तेभ्यः । तस्यास्रवस्य विशेषो भेदस्तद्विशेषः । एतदुक्तं भवति — तीव्रादिविशेषेभ्य इन्द्रियाद्यास्रवाणां विशेषः सिध्यति । कार्यभेदस्य कारणभेदपूर्वकत्वादिति । तदेवं संसारिभेदसिद्धेर्जगद्वैचित्रयसिद्धिरप्युपपन्ना भवति । तत्र भेदप्रतिपादनद्वारेणानिर्ज्ञाताधिकररणस्वरूपप्रति
पादनार्थमाह
अधिकरणं जीवाऽजीवाः ||७||
व्याख्यातलक्षणा जीवाऽजीवाः । तेषां पुनर्वचनमधिकरण विशेषज्ञापनार्थम् । जीवाश्चाजीवाश्च जीवाऽजीवाः । मूलपदार्थयोद्वित्वाज्जीवश्चाजीवश्च जीवाऽजीवाविति द्विवचनं प्राप्नोतीति चेत्तन्न
में
जाते हैं वह अधिकरण है अर्थात् द्रव्य है । द्रव्य की सामर्थ्य वीर्य कहलाता है । व्र आदि पदों में द्वन्द्व समास होकर पुनः तत्पुरुष समास हुआ है। तीव्र आदि भावों की विशेषता से इन्द्रिय आदि आस्रवों में विशेषता आती है, क्योंकि कार्यों में जो भेद पड़ता है वह कारणों के भेद से ही पड़ता है । इन आसूव भावों विभिन्नता होने के कारण संसारी जीवों के नर नारक आदि अनेक-अनेक भेद होते हैं और उन अनेक भेदों के कारण जगत् की नाना विचित्रता भी सिद्ध हो जाती है । अभिप्राय यह हुआ कि आसूव के भेद से कर्म बन्ध नाना प्रकार का होता है, कर्मों का उदय नाना रूप आने से संसारी जीव त्रस स्थावर, सैनी - असैनी, स्त्री-पुरुष, षट्काय, कुल योनि, अवगाहना नारकी, देव मानव इत्यादि अनेक भेद वाले होते हैं उनके कर्मोके नाना विपाक भोगना ऊर्ध्वलोक आदि स्थानों पर होता है इससे जगत् की नाना प्रकार की पर्वत, द्वीप, सागर, बिल, विमान आदि रचनायें स्वतः सिद्ध होती हैं ।
आसूवों के भेदों में जो अधिकरण हैं उसका स्वरूप अभी ज्ञात नहीं है अतः उसको सूत्र द्वारा बतलाते हैं
सूत्रार्थ - अधिकरण दो प्रकार का है जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण । जीव अजीव का लक्षण कह आये हैं उनका पुनः नाम अधिकरण को बतलाने हेतु आया है । 'जीवाजीवा' पद में द्वन्द्व समास है ।
शंका- मूल पदार्थ दो हैं अतः जीवश्च अजीवश्च जीवाजीवी ऐसा द्विवचन होना चाहिए ?