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________________ ३५४ ] सुखबोधायां तत्वार्थवृत्ती साभिलाषं मनोज्ञरूपदर्शनं दर्शनक्रिया । तथा मनोज्ञस्पृष्टव्यस्पर्शनं स्पर्शनक्रिया। अपूर्वहिंसादिप्रत्ययकरणं प्रत्ययक्रिया । स्त्रयादिसहिते देशेऽन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपातक्रिया । अप्रमृष्टादृष्टभूमी कायादिनिक्षेपोऽनाभोगक्रिया । ता एताः पञ्च । स्वहस्तनिसर्गविदारणाज्ञाव्यापादनाऽनाकाङ क्षाक्रियाः पञ्च । तत्र परकरणीयस्य स्वहस्ते करणं स्वहस्तक्रिया । पापप्रवृत्तावभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया। पराचरितप्रच्छन्नदोषप्रकाशनं विदारणक्रिया। जिनेन्द्राज्ञां स्वयमनुष्ठातुमसमर्थस्यान्यथार्थसमर्थनेन तद्व्यापादनमाज्ञाव्यापादनक्रिया। प्रमादालस्याभ्यां प्रवचनोपदिष्टविधिकर्तव्यतानादरोऽनाकांक्षाक्रिया। एता: पञ्च । प्रारम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाऽप्रत्याख्यानक्रियाः पञ्च । छेदनाद्यारम्भरणमारम्भक्रिया । परिग्रहाऽविनाशार्था क्रिया परिग्रहक्रिया । ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं माया क्रिया। परं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिर्द्ध ढयति साधु करोषीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिप्रत्याख्यानक्रिया । एताः पच । एवं यथोक्ताः पञ्चविंशतिरपि क्रिया इन्द्रियकषायाव्रतेभ्यः पृथक्कथिताः, कार्यकारणतया कथञ्चिद्भेदसद्भावात् । प्रवृत्तिरूपा हि क्रियास्तद्धेतुपरिणामये पांच क्रियायें हैं। उनमें अभिलाषा से सुन्दर रूप देखना दर्शन क्रिया है। सुन्दर वस्तु को स्पर्श करना स्पर्शन क्रिया है । नये-नये हिंसादि के कारण जुटाना प्रत्यय क्रिया है । स्त्री पशु आदि के स्थान पर मल मूत्रको करना समन्तानुपात क्रिया है। बिना सोधे बिना देखे भूमि पर सोना बैठना आदि अनाभोग क्रिया है। ये पांच हई। स्वहस्त, निसर्ग, विदारण, आज्ञाव्यापादन और अनाकांक्षा ये पांच क्रियायें हैं। उनमें जो कार्य परके द्वारा करने योग्य हैं उनको अपने हाथ से करना स्वहस्त क्रिया है । दूसरा कोई पाप प्रवृत्ति कर रहा है उसकी अनुमोदना करना निसर्ग क्रिया है । परके द्वारा किया गया गुप्त दोष प्रकट करना विदारण क्रिया है। अपन खुद जिनेन्द्र देव की आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हैं अतः दूसरों को भी विपरीत अर्थ बक्तलाकर विपरीत कार्य कराना आज्ञाव्यापादन क्रिया है। प्रमाद और आलस्य के कारण शास्त्र में कहे हए विधान को करने में अनादर होना अनाकांक्ष क्रिया है । ये पांच हुईं। आरम्भ, परिग्रह, माया, मिथ्यादर्शन और अप्रत्याख्यान ये पांच क्रियायें हैं। छेदन, भेदन आरम्भ आदि रूप आरम्भ क्रिया है। परिग्रह का नाश न हो इस हेतु से जो क्रिया होती है वह परिग्रह क्रिया है। ज्ञान दर्शन आदि के विषय में ठगना माया क्रिया है। दूसरा कोई व्यक्ति मिथ्यात्व क्रियाको कर रहा है उसको देखकर प्रशंसा आदि से तुम अच्छा कार्य कर रहे हो ऐसा कहकर दृढ़ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है । संयम घाती कषाय के उदय से त्याग के परिणाम नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है। ये पांच हुईं। ये पच्चीस क्रियायें इन्द्रिय अव्रत और कषायों से पृथक् कही गयी हैं, क्योंकि कार्य कारण की अपेक्षा इनमें
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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