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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३५३ गुद्दिष्टस्य परायिकास्रवस्यात्र संग्रहः । परस्परतो भिद्यन्ते विशिष्यन्त इति भेदा: प्रकारा इत्यर्थः । अत्रेन्द्रियादीनां पञ्चादिभिर्यथासङ्खयमभिसम्बन्धो द्रष्टव्यो व्याख्यानात् । पञ्चेन्द्रियाणि चत्वारः कषायाः, पञ्चाव्रतानि पञ्चविंशतिः क्रिया इति । तत्र पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शना दीन्युक्तानि । क्रोधादयः कषायाश्चत्वारः प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यादिविकल्पा वक्ष्यन्ते । हिंसादीनि पञ्चाव्रतानि च वक्ष्यन्ते । पञ्चविंशतिक्रियास्त्वत्रोच्यन्ते – सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमाधानेर्यापथक्रियाः पञ्च । तत्र चैत्यगुरुप्रवचनपूजनादिलक्षणसम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । अन्यदेवतास्तवनादिरूपा मिथ्यात्वहेतुका प्रवृत्तिमिथ्यात्वक्रिया | कायादिभिः परगमनादिप्रयोजकत्वं प्रयोगक्रिया । संयतस्य सतोऽप्रयत्नपरोपकरणादिग्रहणं समाधान क्रया । ईर्यापथकर्महेतुरीय पथ क्रियेति पञ्चैताः । प्रदोषकायाधिकरणपरितापप्राणातिपातक्रियाः पञ्च । तत्र क्रोधावेशाच्चेतसः प्रदुष्टत्वं प्रदोष क्रिया । ततः कायोद्यमः कार्याक्रिया । हिंसोपकरणाधिकृतिरधिकरणक्रिया । परदुःखकरणं परितापक्रिया । श्रायुरिन्द्रियबलप्रारणानां वियोगकरणं प्राणातिपातक्रिया । एताः पञ्च । दर्शनस्पर्शनप्रत्यय समन्तानुपाताऽनाभोगक्रियाः पञ्च । आस्रव कहा था उसका ग्रहण होता है । जो परस्पर में भेदको प्राप्त होते हैं - विशिष्ट होते हैं उन्हें भेद कहते हैं । यहां इन्द्रिय आदि का पांच आदि संख्या के साथ सम्बन्ध व्याख्यान से कर लेना चाहिए । अर्थात् इन्द्रियां पांच हैं, कषाय चार हैं, अव्रत पांच हैं और क्रिया पच्चीस हैं । उनमें स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों को पहले कह दिया है । क्रोधादि कषाय चार हैं तथा उनमें क्रोध, मान आदि प्रत्येक के अनंतानुबन्धी आदि चार भेद होते हैं, इनको आगे कहने वाले हैं । हिंसादि पांच अव्रतों का कथन आगे करेंगे । पच्चीस क्रिया यहां पर कहते हैं— सम्यक्त्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया, प्रयोग क्रिया, समाधान क्रिया और ईर्यापथ क्रिया ये पांच हैं । इनमें चैत्य, गुरु, प्रवचन आदि की पूजा आदर करना इत्यादि रूप सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली क्रिया को सम्यवत्व क्रिया कहते हैं । अन्य कुदेव आदि के स्तवन आदि क्रियाको मिथ्यात्व क्रिया कहते हैं । शरीर आदि से परको गमनादि क्रिया में प्रयुक्त करना प्रयोग क्रिया है । संयमी साधु है और वह यत्नाचार बिना परके उपकरण आदि या अपने उपकरण आदि को ग्रहण करता है वह समाधान क्रिया है । ईयपथ सम्बन्धी क्रिया ईयपिथ क्रिया है । ये पांच हुई । प्रदोष, काय, अधिकरण, परिताप और प्राणातिपात ये पांच क्रियायें हैं । उनमें क्रोध के आवेश से मन कलुषित होना प्रदोष क्रिया है । कलुषित मन से कायका उद्यम होना काय क्रिया है । हिंसा के उपकरण रखना - ग्रहण करना अधिकरण क्रिया है । परको दुःख देना परिताप क्रिया है । आयु, इन्द्रिय बल और श्वास-प्राणोंका नाश करना प्राणातिपात क्रिया है । ये पांच हैं । दर्शन, स्पर्शन, प्रत्यय, समन्तानुपात और अनाभोग 1 1
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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