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________________ ३५२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो भिभवः संपरायः संसार इति वा कथ्यते। स संपरायः प्रयोजनमस्येति सांपरायिक कर्म । ईरणमीर्यागतिरिति यावत् । सा ईर्या द्वारं-पन्था यस्य तदीर्यापथं कर्म । सांपरायिकं च ईर्यापथं च सांपरायिकेर्यापथे । तयोः सांपरायिकेर्यापथयोः । अत्र यथासङ्ख्यमभिसंबंधः क्रियते । सकषायस्यात्मनो मिथ्यादृष्टयादेः सूक्ष्मसांपरायान्तस्य सांपरायिकस्य कर्मण आस्रवो भवति । अकषायस्योपशान्तकषायादेरीर्यापथस्य कर्मण प्रास्रवो भवतीति । कषायासम्भवे संसारफलस्य कर्मणः प्राप्त्ययोगादीर्यापथस्यास्रवणं प्रकृतिप्रदेशबन्धफलस्येति प्रत्येयम् । कषायसद्भावे तु स्थित्यनुभागबन्धफलस्य कर्मण प्रास्रवणं भवति । कषायोदयस्य तन्नान्तरीयकत्वादिति च बोद्धव्यम् । तत्र सांपरायिकास्रवस्य भेदानाहइन्द्रियकषायावतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥५॥ इन्द्रियाणि च कषायाश्चाव्रतानि च क्रियाश्चेन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः । पञ्चभिरधिका विंशतिः पञ्चविंशतिः । पञ्च च चत्वारश्च पञ्च च पञ्चविंशतिश्च पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिः। सा सङ्ख्या येषां भेदानां ते पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः । पूर्वस्येत्यनेनातीतसूत्रे ईर्यापथास्रवात्प्रा संसार है, वह संपराय जिसका प्रयोजन या कर्म है वह सांपरायिक कहलाता है, इस प्रकार सांपरायिक शब्दका निरुक्ति अर्थ है। गतिको ईर्या कहते हैं, वह ईर्या जिसका द्वार-पथ है वह ईर्यापथ कर्म है, इसतरह ईर्यापथ शब्दका निरुक्तिपरक अर्थ है। ईर्यापथादि पदों में भी द्वन्द्व समास है। यहां क्रम से सम्बन्ध करना चाहिए। मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान तक सांपरायिक कर्मका आसव होता है । और उपशांत कषाय आदि गुणस्थानवर्ती अकषायी जीवों के ईपिथ कर्मका आसव होता है। कषाय का अभाव होने पर संसाररूप फलको देने वाले कर्म नहीं आते, वहां तो ईपिथ का आसव होता है जिसका कि फल मात्र प्रकृति बंध और प्रदेशबन्ध है । हां जब तक कषाय है तब तक स्थिति और अनुभाग बंधरूप फल वाले कर्मका आसव होता है। कषाय के उदय के अन्तर्गत ही स्थिति और अनुभाग बन्ध है अर्थात् कषायोदय के बिना स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध नहीं होते ऐसा जानना चाहिए। सांपरायिक आसव के भेद कहते हैं सूत्रार्थ-पांच इंद्रियां, चार कषाय, पांच अव्रत और पच्चीस कषाय ये सांपरायिक आसव के भेद हैं। इंद्रिय आदि पदों में द्वन्द्वसमास है । पंच आदि पदों में द्वन्द्वगभित बहुब्रीहि समास किया गया है । 'पूर्वस्य' इस पदसे अतीत सूत्र में ईर्यापथ आसवके पहले जो सांपरायिक
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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