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________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३५१ पुण्यस्येत्युच्यते । यथाल्पापकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावादुपकारक इति कथ्यते । एवमशुभः पापस्येत्यपि । उक्त च सुभपयडीणविसोधी तिव्वं असुहारण सङ्किलेसेण । विवरीदो दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ।। इति ।। कीदृशोरात्मनोः कयोः कर्मणोरास्रव इत्याह सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ।। ४ ।। प्रकृतास्रवस्यानन्त्येऽपि सकषायाकषाययोरात्मनो: स्वामिनोर्द्वविध्यादास्रवस्याप्यत्र द्वैविध्यं वेदितव्यम् । क्रोधादिपरिणामः कषति हिनस्त्यात्मानमिति कषाय उच्यते । अथवा यथा कषायः क्वाथाख्यो नैयग्रोधादिः श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात्कषाय इव कषाय इत्युच्यते । सह कषायेण वर्तत इत्यात्मा सकषायः । न विद्यते कषायोऽस्येत्यकषायः । सकषायश्चाकषायश्च सकषायाकषायो । तयोः सकषायाकषाययोरित्यनेन स्वामिनिर्देशः । कर्मभिः समन्तादात्मनः पराभवोऽ परिणामों से और अशुभ प्रकृतियों का विशुद्ध परिणामों से जघन्य अनुभाग बंध होता है । इसप्रकार सभी कर्म प्रकृतियों का अनुभाग बंध जानना ॥१॥ ( कर्मकाण्ड गो० गाथा १६३ ) प्रश्न- किस प्रकार के आत्मा के कौनसे कर्मका आसव होता है । उत्तर-इसी को सूत्र द्वारा कहते हैं सूत्रार्थ-कषाय सहित और कषाय रहित आत्मा का योग क्रम से सांपरायिक और ईर्यापथ कर्म के आसवरूप है । प्रकृत आसव के अनन्त भेद संभव हैं तथापि कषाय युक्त आत्मा और कषाय रहित आत्मा इस तरह स्वामी के दो भेद होने से आसव को भी यहां दो प्रकार का कहा है। क्रोधादि परिणाम को कषाय कहते हैं, जो आत्मा का घात करता है वह कषाय है । अथवा जैसे न्यग्रोध-वड पीपल आदि वृक्षों की छाल का काढ़ा वस्त्रादि में रंग का गाढ सम्बन्ध का कारण होने से 'कषाय' कहलाता है वैसे आत्मा के क्रोधादि परिणाम कर्म बन्धके हेतु होने से कषाय कहे जाते हैं। कषाय युक्त जीव सकषाय है और जिनके कषाय नहीं हैं वे अकषाय हैं । सकषायादि पदों में द्वन्द्व समास करके षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है । सब ओर से आत्मा का जो कर्म द्वारा पराभव करे वह संपराय
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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