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________________ ३५० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो पुण्यस्य प्रतिद्वन्द्विरूपं पापमिति विज्ञायते । पाति रक्षत्यात्मानमस्मात् शुभपरिणामादिति पापं मतम् । तदसद्वद्याद्युत्तरत्र वक्ष्यते । ततः शुभ एव योगः पुण्यस्याऽशुभ एव पापस्येत्येवं नियमः सुखदु.खविपाकनिमित्तत्वेन प्रधानभूतानुभागबन्धं प्रति योज्यो नान्यथेति बोद्धव्यम् । तत्रोत्कृष्टविशुद्धिपरिणामनिमित्तः सर्वशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबन्धः । उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामनिमित्तः सर्वाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबन्धः । उत्कृष्टः शुभपरिणामोऽशुभजघन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयसः शुभस्य हेतुरिति कृत्वा शुभः वह पुण्य साता वेदनीय इत्यादि कर्म है, इसका कथन आगे करने वाले हैं। पुण्य के प्रतिद्वन्द्वीरूप पाप होता है, 'पाति रक्षति आत्मानं अस्मात् शुभपरिणामात् इति पापम्' अर्थात् जो आत्मा को इस शुभ परिणाम से बचावे वह पाप कर्म है । पाप कर्म असाता वेदनीय इत्यादि कर्म हैं इसका वर्णन भी आगे करेंगे। इससे ऐसा जानना कि शुभ ही योग पुण्य का कारण है तथा अशुभ ही योग पाप का कारण है । सुख दुःख रूप विपाक का निमित्त स्वरूप जो अनुभाग बन्ध है, उस अनुभाग बन्ध के प्रति योग को लगाना चाहिए, अन्य प्रकार से नहीं। उनमें जो उत्कृष्ट विशुद्ध परिणाम है. उसके निमित्त से सर्व शुभ कर्म प्रकृतियों में उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध होता है। तथा जो उत्कृष्ट संवलेश परिणाम है उसके निमित्त से सर्व अशुभ-पाप प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध पड़ता है । यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम पाप कर्म के जघन्य अनुभाग बन्ध का कारण है तो भी बहुत अधिक रूप से पुण्य कर्म का अनुभाग कराने से शुभ परिणाम पुण्यका निमित्त है ऐसा कहा गया है । इसी तरह अशुभ योग के विषय में भी लगा लेना, अर्थात् अशुभ परिणाम से यद्यपि किंचित् जघन्यपने से पुण्य कर्मका अनुभाग पड़ता है किन्तु बहुत अधिक रूप से पाप कर्मका अनुभाग कराने से उसको अशुभ कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति या कोई पदार्थ है उससे थोड़ासा अपकार भी होता है किन्तु अधिकतर बहुतसा उपकार करता है तो उस व्यक्ति को हम उपकारी मानते हैं वैसे योग के विषय में समझना । कहा भी है-तीव्र विशुद्ध परिणाम शुभकर्म प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बन्ध कराते हैं तथा तीव्र संक्लेश परिणाम अशुभ कर्म प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बन्ध कराते हैं और इससे विपरीत जघन्य अनुभाग बन्ध का हेतु है । अर्थात् सातावेदनीयादि शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध विशुद्ध परिणामों से होता है और असातावेदनीयादि अशुभ-पाप कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध संवलेश परिणामों से होता है, इनसे विपरीत परिणामों से जघन्य अनुभाग बन्ध होता है, अर्थात् शुभ प्रकृतियों का संक्लेश
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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