SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठोऽध्यायः [ ३४९ शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य ॥ ३ ॥ विशुद्धिपरिणामहेतुकस्त्रिविधोऽपि कायादियोगः शुभ इति कथ्यते । तत्राऽहिंसाऽस्तेयब्रह्मचर्यादिः शुभः काययोगः। सत्यहितमितभाषणादि: शुभो वाग्योगः । अहंदादिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादिः शुभो मनोयोग इति । संक्लेशपरिणामहेतुकस्त्रिविधोऽपि कायादियोगोऽशुभ इत्युच्यते । तत्र प्राणातिपाताऽदत्तादानमैथुनप्रयोगादिरशुभः काययोगः । अनृतभाषणपरुषासभ्यवचनादिरशुभो वाग्योगः । वधचिन्तने सूयादिरशुभो मनोयोग इति । एतेन शुभाशुभपरिणामनिवृत्तत्वाद्योगस्य शुभाशुभत्वम् । न तु शुभाशुभकर्मपुद्गलकारणत्वेनेति प्रतिपादितं भवति । आगमान्तरेऽपि शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणाद्यशुभकर्मबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । कर्मणः स्वातन्त्र्यविवक्षायां पुनात्यात्मानं प्रीरणयतीति पुण्यम् । पारतन्त्र्यक्विक्षायां पूयते प्रात्माऽनेनेति वा पुण्यमिति निरुच्यते । तत्सद्वेद्याद्युत्तरत्र वक्ष्यते । प्रश्न- कैसे कर्मका कैसा योग आसव कराता है ? उत्तर-- इसीको अग्रिम सूत्र द्वारा कहते हैं सूत्रार्थ-शुभयोग पुण्यका और अशुभ योग पापका आसूव है । विशुद्ध परिणाम का जो कारण है ऐसा तीन प्रकार का भी कायादि योग शुभ कहलाता है। उनमें अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य इत्यादि रूप शुभ काय योग है । सत्य, हित, मित भाषण आदि शुभ वचन योग है । अर्हन्त देव तथा गुरु आदि की भक्ति रूप भाव होना तप में रुचि होना, श्रुत के विनयरूप विचार इत्यादि शुभ मनोयोग कहलाता है। जो संक्लेश परिणाम का कारण है ऐसा तीनों प्रकार का भी कायादि योग अशुभ है। उनमें जो हिंसा, चोरी, मैथुन प्रयोग आदि स्वरूप अशुभ काय योग है । झूठ बोलना, तथा कठोर असभ्य वचन बोलना इत्यादि अशुभ वचन योग कहलाता है। किसी के वधका चिंतन करना, ईर्षा असूयादि के भाव होना इत्यादि अशुभ मनोयोग है । इस तरह शुभ अशुभ परिणाम से जो बना है वह योगका शुभ अशुभव है ऐसा समझना चाहिए अर्थात् शुभ परिणाम से जो होता है वह शुभयोग है तथा अशुभ परिणाम से जो होता है वह अशभ योग है। शुभकर्म पुद्गल का कारण होने से शुभयोग और अशुभ कर्म पुद्गल का कारण होने से अशुभ योग है ऐसा अर्थ नहीं समझना । इसमें भी हेतु यह है कि आगम में भी कहा है कि शुभयोग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्म बंधका कारण होता है। कर्म की स्वातन्त्र्य विवक्षा में जो आत्माको पवित्र करे वह पुण्य है । पारतन्त्र्य विवक्षा में 'पूयते आत्मा अनेन इति पुण्यम्' ऐसी पुण्य शब्दकी निरुक्ति जानना चाहिए।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy