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________________ ३४८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती कर्मबन्धहेतुर्न भवति । किं तहि-कायवर्गणानिमित्त प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दस्तत्र बन्धस्य हेतुरस्तीत्ययमर्थः सिद्धो भवति । ननु मिथ्यादर्शनादीनामपि कर्मागमद्वारत्वात् कथमिहावचनमिति चेन्मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायाणां योगेऽन्तर्भावादिहाऽपृथग्वचनमिति ब्रूमः । योगस्य पुनरिह वचनं सयोगकेवलिपर्यन्तगुणस्थानव्यापकत्वाद्बोद्धव्यं मिथ्यादर्शनादीनां तदभावात् । अत्राह-कीदृशस्य कर्मणः कीदृगयमागमनहेतुरित्याह उत्तर-कायवर्गणा का आलंबन लेकर जो आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द हुआ है, उस स्वरूप जो योग है वह उक्त केवली के उस समय बन्धका कारण होता है। विशेषार्थ-यहां पर ग्रंथ टीकाकार ने एक विशेष बात कह दी है कि सयोगी जिन जब केवली समुद्घात करते हैं उस समय अपने आत्मप्रदेशों को क्रमशः दण्ड के आकार, कपाट के आकार, प्रतराकार और लोक पूरणरूप करते हैं यह क्रिया भी योग स्वरूप है किन्तु इस क्रिया रूप (परिस्पंदन) योग से कर्म बन्ध (अर्थात् ईर्यापथ आस्रव से साता वेदनीय कर्म का एक समयवाला बंध) नहीं होता है । ऐसा कहने पर प्रश्न होता है कि फिर उक्त कर्मबन्ध किस कारण से होता है तो उसका उत्तर दिया कि उक्त समुद्घात के समय कायवर्गणा का आलंबन लेकर आत्मप्रदेशों में जो परिस्पंदन होता है वह योग अर्थात् औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग ये तीन योग सातावेदनीय कर्मबन्ध को कराते हैं । शंका-मिथ्यादर्शन अविरति आदि भी कर्मों के आगमन के द्वार हैं उनको यहां आसव प्रकरण में क्यों नहीं कहा ? समाधान-हमने यहां पर मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद और कषायों को योग में अन्तर्भूत किया है, इसलिये अभिन्नरूप से एक योग को ही लिया है अन्य मिथ्यात्वादि को नहीं । तथा योग तो सयोगकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानों में रहता है मध्यमें इसका अभाव नहीं होता अतः सर्वत्र व्यापक होने की दृष्टि से मिथ्यात्व आदि का इसी में अन्तर्मान करके एक योगको ही आसव रूप कह दिया है । मिथ्यादर्शन आदि बन्धके कारण तो ऐसे सर्वत्र व्यापक नहीं हैं, अर्थात् मिथ्यादर्शन सिर्फ प्रथम गुणस्थान में रहता है, अविरति चौथे पांचवें गुणस्थान तक प्रमाद छ8 तक और कषाय दसवें गुण स्थान तक होती है किन्तु योग इन सबमें साथ रहता है अतः उसीको आसव कह दिया है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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