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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो द्वावेवागमे नयो प्रसिद्धौ। तृतीयस्य च गुणार्थिकस्य नयस्याभावाद्गुणाभावस्तदभावाच्च गुणपर्ययवदिति निर्देशो नोपपद्यत इति । तदेतन्न वक्तव्यमहत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोपदेशसद्भावात् । उक्त हि तावदस्मिन्नर्हत्प्रवचनहृदये 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा' इति । अन्यत्राप्युक्तम्
गुण इदि दव्वविहाणं दव्वविहाणं दव्ववियारोऽथ पज्जनो भणिदो।
ते हि अणूणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवदि णिच्चम् ।। इति ।। तहि गुणस्यापि तद्भावात्तद्विषयस्तृतीयोऽपि मूलनयः प्राप्नोतीति पूर्वोक्तो दोषस्तदवस्थ एवेति चेन्नैष दोषोऽस्ति यतो द्रव्यस्य द्वावेवात्मानौ स्तः सामान्यं विशेषश्चेति । तत्र सामान्यमुत्सर्गोऽन्वयो गुण इत्यनर्थान्तरम् । विशेषो भेदः पर्याय इत्येकार्थाः शब्दाः। तत्र सामान्यविषयो नयो द्रव्याथिको विशेषविषयस्तु पर्यायाथिक उच्यते । तदुभयं पुनः समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमिति कथ्यते । न चैवं
- शंका-द्रध्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो ही नय आगम में कहे हैं। तीसरा गुणाथिकनय नहीं है अतः गुणोंका अभाव है और उनके अभाव से 'गुणपर्ययवत्' ऐसा निर्देश नहीं बनता ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना । अर्हन्तदेव के प्रवचन हृदयादि में गुणोंका उपदेश पाया जाता है । देखिये ! इस अर्हत् प्रवचन हृदय ग्रंथ में [ इसी तत्वार्थ सूत्र में ] 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गणाः' ऐसा सूत्र कहा गया है । तथा अन्य ग्रन्थ में भी कहा हैगण ऐसा कहने से द्रव्य का कथन हो जाता है और द्रव्य का विस्तार पर्याय है, इस प्रकार उन गुण और पर्यायों से युक्त द्रव्य सदा अयुत सिद्ध होता है ॥१॥
शंका-यदि गुणोंका सद्भाव है तो उसका प्रतिपादक तीसरा मूलनय होना चाहिए, इससे वहीं पूर्वोक्त दोष आता है कि शास्त्र में दो ही मूलनय कहे हैं। जब दो नय हैं तो गुणोंका सद्भाव कैसे सिद्ध हो ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करना । क्योंकि द्रव्य के दो स्वरूप हैं सामान्य और विशेष । उसमें सामान्य उत्सर्ग, अन्वय और गण ये एकार्थवाची शब्द हैं । विशेष, भेद और पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं । इनमें सामान्य विषयवाला नय द्रव्यार्थिक है । और विशेष को विषय करने वाला नय पर्यायाथिक है। ये सामान्य और विशेष दोनों मिलकर अयुत् सिद्ध रूप द्रव्य हैं। इस तरह उनको विषय करने वाले तीसरे नयकी