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________________ पंचमोऽध्यायः [ ३३१ द्विषयतृतीयो नयो भवितुमर्हति विकला देशत्वान्नयानाम् । तत्समुदायोऽपि प्रमाणगोचरः सकलादेशत्वात्प्रमाणस्य । अथवोत्पादव्ययध्रौव्याण्यस्माकं पर्याया उच्यन्ते । न तेभ्योऽन्ये गुणाः सन्ति । ततो गुणा एव पर्यया गुणपर्यया इति सामानाधिकरण्ये सति मत्वर्थीये च गुणपर्ययवदिति निर्देशो युज्यते । ननु यद्येवं तदर्थाभेदाद्गुणवदिति वा पर्ययवदिति वा वक्तव्यं विशेषणस्यानर्थक्यादिति । तन्न । किं कारणम् ? परमतनिराकरणार्थत्वाद्विशेषणस्य । मतान्तरे हि द्रव्यादन्ये गुणाः परिकल्पिताः । न चैवं तेषां सिद्धिः । सर्वथा भेदेनानुपपत्तेः । अतो द्रव्यस्य परिगमनं परिवर्तनं पर्यायस्तद्भेदा एव गुणा नात्यन्तं भिन्नजातीया इति मतान्तर निवृत्त्यर्थं विशेषणं क्रियमाणं सार्थकमिति । उक्तानामेव धर्मादीनां लक्षणनिर्देशात्तद्विषय एव द्रव्यव्यपदेशाध्यवसाये प्रसक्तो ऽनुक्तद्रव्यसंसूचनार्थमाह आवश्यकता नहीं रहती । नय विकलादेशी होते हैं । सामान्य और विशेष का समुदाय जो है वह प्रमाण का विषय है, क्योंकि प्रमाण सकलादेशी होता है । अथवा हम जैन के यहां पर उत्पाद व्यय और धीव्य को पर्याय कहते हैं । इनसे पृथक् ग ुण नहीं होते, इस विवक्षा में गुण ही पर्याय हैं ऐसा सामानाधिकरण्य करने पर तथा मत्वर्थीय प्रत्यय वन्तु लाने पर 'गणपर्ययवत्' ऐसा सूत्र निर्देश बन जाता है । शंका- ग ुण ही पर्याय है ऐसा अर्थ स्वीकार किया जाय तो दोनों में अर्थ भेद नहीं होने से 'गुणवत् द्रव्यं' अथवा 'पर्ययवत् द्रव्यं' इस तरह दोनों में कोई एक वाक्य रूप सूत्र ही कहना चाहिये । एक अधिक विशेषण व्यर्थ है । अर्थात् 'गणपर्ययवत् द्रव्यम्' ऐसा न बनाकर गुण और पर्याय में से एक ही कोई पद लेना चाहिए । समाधान—यह कथन ठीक नहीं है । परमतका निराकरण करने के लिये गुण और पर्यय दोनों विशेषण लिये हैं । मतान्तर में ( नैयायिक वैशेषिक ) द्रव्य से गुण पृथक् माने हैं किन्तु द्रव्य से पृथक् गुणों की सिद्धि नहीं होती । सर्वथा भेद रूप गुण यदि हैं। तो ये गुण इस द्रव्य के हैं ऐसा विभाग बन ही नहीं सकता । अतः द्रव्य के परिणमन, परिवर्तन को पर्याय कहते हैं, उन्हीं के भेद गुण कहलाते हैं, गुण पर्याय से अत्यन्त भिन्न जातीय नहीं है । इस तरह मतान्तर का निरसन करने हेतु विशेषण दिया है इसलिये सार्थक है । पूर्व में कहे गये धर्मादि के लक्षण निर्देश से उसके विषय में द्रव्यसंज्ञा सिद्ध होती है अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के ही द्रव्यसंज्ञा होने का प्रसंग प्राप्त होता है अतः जिसको अभी तक नहीं कहा गया है ऐसे द्रव्य की सूचना करते हुए सूत्र कहते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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