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________________ [ ३२९ पंचमोऽध्यायः कत्वात् सर्वं विविक्तरूपेणैवावतिष्ठेत् । दृश्यते हि संश्लेषे सति वर्णगन्धरसस्पर्शानामवस्थान्तरभावः शुक्लपीतादिसंयोगे शुकपत्रवर्णादिप्रादुर्भाववदिति । एवमुक्तविधिना बन्धे प्रतिपादिते सति पौद्गलिकं कर्मात्मस्थमनन्तानन्तप्रदेशं कायवाङ मनोयोगनिवृत्तं विस्रसोपचयोपचितानन्तप्रदेशं स्निग्धरूक्षपरिणतं बन्धमायातमात्मनो ज्ञानावरणादिभावेन त्रिशत्सागरोपमकोटी कोटद्याद्यवस्थानभाक् तत्परिणामकापादितपरिणामाद्घटादिवन्न विष्वग्भवतीत्येतदप्युपपद्यत एव । इदानीं पूर्वोद्दिष्टद्रव्यलक्षणनिर्देशार्थमाहगुणपर्यवद्रव्यम् ॥ ३८ ॥ गुणाश्च पर्ययाश्च गुणपर्ययास्ते यस्य सन्ति तद्गुगपर्ययवदिति । अत्र गुणपर्ययेभ्यो द्रव्यस्यानन्यत्वेऽपि लक्षणादिभिः कथंचिद्भेदोपपत्तेर्मत्वर्थीय उपपद्यते । ननु द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति परिवर्तन न होवे तो काले और सफेद धागों के समान संयोग होने पर भी परिणमन नहीं होने से सर्व पृथक्-पृथक् रूप ही रह जायेंगे । किन्तु ऐसा नहीं होता । संश्लेष संबंध होने के बाद तो स्पर्श, रस, गंध और वर्णोंका अवस्थान्तर हो हो जाता है; जैसे कि सफेद और पीला आदि का संयोग होने पर तोते के पंख के समान आदि रूप वर्ण उत्पन्न होता है । इसतरह परमाणुओं में बंध होना स्वीकार किया है, ऐसा बंध होने से जो पौद्गलिक अनन्तानन्तं प्रदेशवाला कर्म मन, वचन और काय योग द्वारा आत्मा में स्थित हुआ है, तथा विस्रसोपचय स्वरूप अनंत प्रदेशवाली कार्मण वर्गणाएं स्निग्ध रूक्ष रूप परिणत हुई बन्ध को प्राप्त होगी ये पुद्गल कर्म ज्ञानावरण आदि रूप होकर तीस कोडाकोडी सागर प्रमाणकाल तक अवस्थित रहते हैं, क्योंकि उनमें उस तरह का परिवर्तन हो जाने से घट आदि पदार्थ के समान वे कर्म पृथक् भाव को उतने काल तक प्राप्त नहीं होते हैं अर्थात् अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने तक आत्मा में ही अवस्थित रहते हैं आत्मा से पृथक नहीं होते, भाव यह है कि कर्म वर्गणाओं में परस्पर में इस तरह का बंध विशेष हो जाता है कि वे कर्म स्कंध अपने नियतकाल तक अवस्थित ही रहते हैं बिखरते नहीं । यह सर्व प्रभाव परस्पर में बंधरूप परिणाम के कारण ही होता है ऐसा जानना चाहिए । अब इस समय पूर्व में कहे हुए द्रव्यों का लक्षण बतलाते हैं सूत्रार्थ - द्रव्य गुण पर्याय वाला होता है । गुणपर्ययवत् पद में द्वन्द्व समास होकर अस्ति अर्थ में वन्तु (वत्) प्रत्यय आया है । इसमें गुण पर्यायों से द्रव्य अभिन्न है तो भी लक्षण आदि की अपेक्षा कथंचित् भेद होने से मत्वर्थीय वन्तु प्रत्यय आया है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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