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________________ ३२८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती अत्र समस्तुल्यजातीयो विषमोऽतुल्यजातीय उच्यते । समस्य चतुर्गुणस्निग्धस्य षड्गुणस्निग्धेनास्ति बन्धः । विषमस्य चतुर्गुणरूक्षस्य षड्गुण स्निग्धेनास्ति बन्ध इत्यर्थः । एवमुक्तेनैव प्रकारेण परमाणूनां बन्धे सति द्वयणुकादिस्कन्धोत्पत्तिर्वेदितव्या अन्यथा तदनुपपत्तेः। कुतोऽधिकाभ्यां गुणाभ्यामणूनां बन्धो भवेन्नान्यथेति चेद्यस्मात् बन्धेऽधिको पारिणामिको च ॥३७॥ बन्धे बन्धविषये इत्यर्थः । अधिकावित्यनेन प्रकृती गुणौ गृह्यते । परिणमयत इति परिणामोभावान्तरापादकाविति यावत् । यथा क्लिन्नगुडोऽधिकमधुररसः पतितानां रेण्वादीनां स्वगुणापादनात्परिणामको दृष्टस्तथाऽधिकगुणौ परमाणुषु तदूनगुणानामणूनां परिणामको भवत इति कृत्वा द्विगुणादिस्निग्धरूक्षस्य चतुर्गुणादिस्निग्धरूक्षः परिणामको भवतीति । ततः पूर्वावस्थापरित्यागपूर्वकं तार्तीयिकमवस्थान्तरं प्रार्दु भवतीत्येकस्कन्धत्वमुपपद्यते । इतरथा हि शुक्लकृष्णतन्तुवत्संयोगे सत्यप्यपरिणाम गाथा में जो 'सम' शब्द आया है उसका अर्थ तुल्यजातीय है तथा विषम शब्द का अर्थ अतुल्यजातीय है । समान चार गुण वाले स्निग्धका छह गुण वाले स्निग्धों के साथ बन्ध होता है । विषम चार गुण वाले रूक्षका छह गुण वाले स्निग्ध के साथ बंध होता है । यह अर्थ है। इस प्रकार से परमाणुओं के बन्ध हो जाने पर द्वयणुक आदि स्कन्धों की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं होती ऐसा निश्चय से जानना चाहिए। प्रश्न-दो अधिक गणवाले अणुओं के साथ ही क्यों बन्ध होता है, अन्य प्रकार से बन्ध क्यों नहीं होता? उत्तर-अब इसीको सूत्र द्वारा कहते हैं सत्रार्थ-बंध होने पर अधिक ग णवाले रूप परिणमन होता है । 'अधिकौ' इस पद से प्रकृत के दो ग ण ग्रहण किये जाते हैं। जो परिणमन करते हैं वे पारिणामिक कहलाते हैं अर्थात् भावान्तर को प्राप्त होना पारिणामिक है । जैसे गीला ग ड अधिक मधुर रस वाला है तो वह अपने चारों ओर पड़े हुए धूली आदि को अपने गणरूप परिणमन करता हुआ देखा जाता है, ऐसे ही अधिक गुण परमाणुओं में उनसे हीन (कम) गणवाले परमाणुओं का परिवर्तन हो जाया करता है। इसी तरह दो ग ण आदि स्निग्ध या रूक्षका चार गुणवाले स्निग्ध रूक्ष के साथ बन्ध होने पर उसी स्वरूप परिणमन हो जाता है, इस तरह परिणमन होने से पूर्व अवस्था का त्याग होकर एक तीसरी अवस्था ही उत्पन्न हो जाती है, वह एक स्कन्धरूप बन जाता है। यदि ऐसा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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