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________________ ३२४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थं वृत्तौ पांसुकरिकाशर्करादिषु च रूक्षगुणो दृष्टस्तथा परमाणुष्वपि प्रकर्षाप्रकर्ष वृत्त्या स्निग्धरूक्षगुणाः सन्तीत्यनुमानं क्रियते । सर्वपुद्गलानां स्निग्धरूक्षगुणसद्भावादविशेषेण बन्धे प्रसक्तो ऽनिष्टगुण निवृत्यर्थमाहन जघन्यगुणानाम् ।। ३४ ।। स्त्रीणां पूर्वः कटीभागो जघनमित्युच्यते । ततो जघनमिव जघन्यमिति 'शाखादैर्यः' इति ये कृते सिध्यति । क उपमार्थः ? यथा शरीरावयवेषु जघनं निकृष्टं तथाऽन्योऽपि निकृष्टो जघन्य इति व्यपदिश्यते । श्रथवाङ्गाद्द हादित्यनेन भवार्थे ये कृतेऽस्य सिद्धि: - जघने भवो जघन्यो जघन्य इव जघन्यो निकृष्ट एवोच्यते । यद्यपि गुणशब्दोऽयं रूपादिभागोपकारादिष्वनेकेष्वर्थेषु वर्तते । तथाऽपि विवक्षावशाद्भागार्थे वर्तमानोऽत्र गृह्यते । गुणो भागोंऽश इति यावत् । जघन्यो गुणो येषां ते जघन्यगुणास्तेषां जघन्यगुणानां बन्धो नास्तीति सम्बन्धः । एतदुक्तं भवति - निकृष्टेक गुरणस्य स्निग्धस्य बकरी के दूध में, उससे अधिक गाय के दूध में इत्यादि स्नेह गुण का प्रकर्ष देखा जाता है । इससे विपरीत ऊंटनी के दूध या घी की अपेक्षा भंस के दूध आदि में स्नेह गुणका प्रकर्ष देखा जाता है, वैसे स्नेह गुण में तरतमता है । तथा जैसे धूलि, कण, कंकर, रेत आदि में रूक्षता का प्रकर्ष है वैसे ही परमाणुओं में स्निग्ध और रूक्ष गुण प्रकर्ष अप्रकर्ष रूप से पाये जाते हैं ऐसा अनुमान किया जाता है । सर्व पुद्गलों में स्निग्ध और रूक्ष गुणों का सद्भाव होने से समानरूप से बंधका प्रसंग आता है इसलिए जिनमें बंध होना अनिष्ट है अर्थात् जिनमें बंध नहीं हो सकता है उनका कथन करते हैं सूत्रार्थ - जघन्य गुणवालों का बन्ध नहीं होता । स्त्रियों के पूर्वकोटि भागको जघन कहते हैं उस जघन के समान जो हो वह जघन्य है । 'शाखादेर्य:' इस व्याकरण सूत्र से य प्रत्यय लाकर जघन्य शब्द बना है इसकी कौनसी उपमा है ऐसा पूछने पर कहते हैं कि जैसे शरीर के अवयवों में जघन निकृष्ट है वैसे अन्य जो भी निकृष्ट हो उसे जघन्य कहते हैं । अथवा 'अंगाद् देहात' इस व्याकरण सूत्र से भव होने अर्थ में 'य' प्रत्यय लाकर जघने भवः जघन्यः जघन्य इव जघन्यः निकृष्ट : ऐसा शब्द सिद्ध किया है । गुण शब्द के रूप, भाग, उपकार आदि अनेक अर्थ होते हैं किंतु यहां पर विवक्षावश से भाग अर्थ लिया है, गुण अर्थात् भागअंश । जघन्य है गुण जिनके वे जघन्य गुण वाले कहलाते हैं उनके बंध नहीं होता, इस तरह सम्बन्ध करना । अर्थ यह हुआ कि निकृष्ट एक स्निग्ध गुण वाले अणुका या
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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