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________________ . पंचमोऽध्यायः [ ३२५ रूक्षस्य वाऽणोः स्निग्धेन रूक्षेण वाऽन्येन निकृष्टैकगुणेनाधिकगुणेन वा नास्ति बन्धः । पयःसिकतादीनां स्कन्धानां जघन्यस्निग्धरूक्षत्वपरिणतानामन्योन्यं बन्धानुपलम्भस्यान्यथानुपपत्तेरिति । इदानीमजघन्यगुणानामविशेषेण बन्धप्रसङ्गनिषेधार्थमाह गुणसाम्ये सदृशानाम् ।। ३५ ॥ गुणा भागा अंशा इति यावत् । साम्यं समत्वं तुल्यतेति यावत् । गुणैः साम्यं गुणसाम्यं, तस्मिन् गुणसाम्ये । तुल्यभागतायां सत्यामित्यर्थः सदृशानां स्निग्धजात्या रूक्षजात्या च तुल्यानामित्यर्थः । गुणसाम्यग्रहणेनैव सिद्धे सदृशग्रहणं तुल्यजातीयानामपि बन्धविधिप्रतिषेधज्ञापनार्थम् । अन्यथा पूर्वत्र क्रमपठितानामनुवर्तनात्, स्निग्धरूक्षाणामतुल्यजातीयानामेव सूत्रद्वयेऽत्र बन्धस्य प्रतिषेधः, उत्तरत्र विधिश्च स्यात् । ततोऽत्र सदृशानामिति वचनात्पूर्वोत्तरत्र च स्निग्धानां स्निग्धै रूक्षाणां निकृष्ट एक रूक्ष गुण वाले अणुका दूसरे निकृष्ट स्निग्ध या रूक्ष गुण वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। तथा निकृष्ट स्निग्ध या रूक्ष गुणवाले परमाणु का दूसरे एक गुण अधिक वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। जैसे जल और रेत आदि रूप स्कंधों का जो कि जघन्य स्निग्ध रूक्षत्व से परिणत हैं उनका परस्पर में बंध नहीं होता है । इस अन्यथानुपपत्ति से परमाणु ओं के भी इस तरह जघन्य गुण होने पर बंध नहीं होता यह सिद्ध हो जाता है । अजघन्य गुणवालों का समान रूप से बंध होने का प्रसंग आने पर जिनके बंधका निषेध हे उनको बतलाते हैं सत्रार्थ-गुणसाम्य होने पर सदृशों का बन्ध नहीं होता। गुण, भाग और अंश ये एकार्थवाची शब्द हैं। साम्य, समत्व और तुल्य ये भी एकार्थवाची शब्द हैं । गुणों के द्वारा साम्य होना गुणसाम्य कहलाता है । उसमें अर्थात् समान भाग होने पर । स्निग्धजाति से या रूक्षजाति से तुल्य होना सदृश है । 'गुणसाम्य' ऐसा कहने से अर्थ सिद्ध होता है, फिर भी सदृश शब्द तुल्य जातीय परमाणुओं के बंध की विधि निषेध का ज्ञान कराने हेतु आया है। अन्यथा पूर्व सूत्र में क्रम से कहे गये (३३ सूत्र में) अतुल्य जातीय स्निग्धरूक्षों का ही केवल इन दो सूत्रों में (३४॥३५वें सूत्रों में) बन्धका निषेध होता और आगे के सूत्र में बन्धकी विधि होती, अतः इस सूत्र में 'सदृशानाम्' ऐसा पद ग्रहण किया गया है। उससे पूर्व सूत्र और उत्तर सूत्र में स्निग्धोंका स्निग्धों के साथ, रूक्षोंका रूक्षों के साथ और स्निग्धोंका रूक्षों के साथ
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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