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________________ पंचमोऽध्यायः चेतनस्याऽचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमपरित्यजतो निमित्तवशाद्भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद इत्युच्यते - मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमो व्ययनं व्यय इति कथ्यते - यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः । श्रनादिपारिणामिकस्वभावत्वेन व्ययोदयाभावात् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यं यथा पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयात् । उत्पादश्च व्ययश्च धौव्यं चोत्पादव्यय धौव्याणि । तैर्युक्त संबद्धं समाहितं वा उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सदिति बोद्धव्यम् । ननु सर्वथा भेदे सति युक्तशब्दो लोके प्रयुज्यमानो दृष्टो मत्वर्थीयवत् । यथा गावः सन्त्यस्य गोमान्., दण्डेन युक्तो दण्डयुक्तो देवदत्त इति । तथा च सति भवत्पक्ष उत्पादादिधर्माणां त्रयाणां निराश्रयत्वात् द्रव्यस्य च निःस्वरूपत्वादभावः प्राप्नोतीति । नैष दोष:- अभेदेऽपि कथञ्चिद्भेदनयविवक्षायां [ ३१९ चेतन या अचेतन द्रव्य का अपने जाति को नहीं छोड़ते हुए निमित्तवश भावांतर रूप हो जाना उत्पाद कहलाता है, जैसे मिट्टी के पिंड का घट पर्यायरूप हो जाना, द्रव्य में पूर्व भाव का अभाव होना व्यय है, जैसे घट की उत्पत्ति होने पर पिण्डाकार का अभाव होता है । अनादि पारिणामिक स्वभाव से देखने पर उत्पाद व्यय का अभाव होने से जो ध्रुव रहता है वह ध्रुव है ध्रुव के भाव या कर्मको धौव्य कहते हैं, जैसे मिट्टी पिंड घट इत्यादि अवस्थाओं में मिट्टी द्रव्य अन्वयरूप से ध्रुव है, उत्पाद आदि पदों में द्वन्द्व समास करके फिर युक्त पद जोड़ना चाहिए। इस तरह उत्पाद व्यय धौथ्य वाला सत् है ऐसा जानना चाहिए । शंका- आपने 'उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त" ऐसा कहा यह युक्त शब्द लोक में किसी वस्तुओं में भेद होने पर उनके मिलने में प्रयुक्त होता हुआ देखा जाता है, जैसे मत्वर्थीय होता है, अर्थात् जैसे गायें जिसके हैं वह गोमान् दण्ड जिसके है अथवा दण्ड से युक्त देवदत्त है इत्यादि में युक्त शब्द मत्वर्थीय में प्रयुक्त होता है । इस तरह उत्पाद आदि से युक्त होना अर्थ सिद्ध करते हैं तो आप जैन के पक्ष में उत्पाद आदि तीनों धर्म निराश्रय होवेंगे और उससे द्रव्य निःस्वरूप हो जाने से खुद द्रव्य का अभाव सिद्ध हो जायगा | अभिप्राय यह है कि उत्पाद व्यय और धौव्य से युक्त सत् होता है ऐसा कहने पर दण्ड जैसे देवदत्त से भिन्न है वैसे उत्पाद आदि द्रव्य से भिन्न ठहरते हैं किंतु जैन के यहां उत्पाद आदि से भिन्न कोई द्रव्य सिद्ध नहीं है, जब द्रव्य नहीं है तब उत्पादादि किस आश्रय में होंगे ? तथा उत्पाद आदि द्रव्य का स्वरूप है जब वह स्वरूप नहीं रहेगा तो द्रथ्य निःस्वरूप शून्य होवेगा ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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