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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
बिल्वामलकबदरादीनाम् । स्थौल्यमप्यन्त्यमापेक्षिकं चेति द्विविधम् । तत्रान्त्यं जगद्वयापिनि महास्कन्धे । प्रापेक्षिकं बदरामलकबिल्वतालादिषु । संस्थानमाकृतिस्तद्विधा भिद्यते - इत्थंलक्षरणमनित्थंलक्षणं चेति । तत्र वृत्तत्र्यश्रचतुरश्रायतपरिमण्डलादिनियतमित्थंलक्षणम् । अतोऽन्यन्मेघादीनां संस्थानमनेकविधमित्थमेवेदमिति निरूपणाभावादनित्थंलक्षणम् । भेदः षोढा भिद्यते - उत्कर चूर्ण खण्डचूर्णिकाप्रतराणुचटनविकल्पात् । तत्रोत्करः काष्ठादीनां करपत्रादिभिरुत्करणम् । चूर्णो यवगोधूमादीनां सक्तुकणिकादि । खण्डो घटादीनां कपालशर्करादि । चूरिंगका माषमुद्गादीनाम् । प्रतरो अभ्रपटलादीनाम् । श्रणुचटनं तप्तायः पिण्डादिष्वयोघट्टनादिभिरभिहन्यमानेषु स्फुलिङ्गनिर्गमः । तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं प्रकाशविरोधि । प्रकाशावरणं शरीरादिकं यस्या निमित्तं भवति सा छाया । सा द्वेधावर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका चेति । तत्रादर्शतलादिषु प्रसन्नद्रव्येषु मुखादिच्छाया तद्वर्णादिपरिणता उपलभ्यते । इतरत्र प्रतिबिम्बमात्रमेव । प्रातप आदित्यनिमित्त उष्ण प्रकाशलक्षणः पुद्गल परिणाम: । उद्योतश्चन्द्रमरिणखद्योतादीनां प्रकाशः । एवमन्येऽपि नोदनाभिघातादयो ये पुद्गल -
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वह उत्कर कहलाता है । जौ,
बेल, बेर आदि में आपेक्षिक सौक्ष्म्य होता है । स्थौल्य भी दो प्रकार का है - अन्त्य और आपेक्षिक | अन्त्य स्थौल्य जगद्व्यापी महास्कन्ध में होता है और आपेक्षिक स्थौल्य बेर, आंवला, बेल, ताड़फल आदि में पाया जाता है । आकृति को संस्थान कहते हैं, इसके दो भेद हैं-इत्थं लक्षण और अनित्थं लक्षण । गोल, तिकोण, चौकोण, लंबा, परिमण्डल आदि नियत आकार इत्थं लक्षण संस्थान है । इससे अन्य जो मेघादिका अनेक प्रकार का संस्थान है जिसे ऐसा है इस प्रकार कह नहीं सकते वह अनित्यं लक्षण संस्थान है | भेद छह प्रकार का है- उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन । काठ आदि को कतादि से छीलकर जो भेद होता है गेहूं आदि का आटा चूर्ण कहलाता है । घट आदि के कपाल, खप्पर आदि रूप भेद होना खण्ड है । उड़द, मूंग आदि की दाल, टुकड़े रूप होना वह चूर्णिका है । बादल आदि का फैलना प्रतर है और तपे लोहे को हथोड़ा आदि से पीटने से जो स्फुलिंग निकलते हैं वे अणुचटन कहलाते हैं, प्रकाश का विरोधि और नेत्र के प्रतिबंधक का कारण जो है वह तम है । प्रकाश के आवरण स्वरूप जो शरीरादिक है वह जिसका निमित्त है वह छाया है । वह दो प्रकार की है - वर्णादिके विकार स्वरूप और प्रतिबिंब मात्र स्वरूप । उनमें दर्पण आदि प्रसन्न - स्वच्छ द्रव्यों में मुखादिकी छाया उसी वर्णादि रूप परिणत होती है वह वर्णादि विकार परिणत छाया कहलाती है । और शरीर की परछाई स्वरूप प्रतिबिंबात्मक छाया है। सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश लक्षण वाला पुद्गल परिणाम आतप कहलाता है । चन्द्र, चन्द्रकांत खद्योत आदि के प्रकाश को