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________________ ३०६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥ स्पृश्यते स्पर्शनमात्रं वा स्पर्शः । स च मूलभेदापेक्षयाऽष्टविधो-मृदुकठिनगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षविकल्पात् । रस्यते रसनमात्र वा रसः । स पञ्चविधः-तिक्ताम्लकटुकमधुरकषायभेदात् । गन्ध्यते गन्धनमात्रं वा गन्धः । स द्वधा-सुरभिरसुरभिश्चेति । वर्ण्यते वर्णनमात्रं वा वर्णः । स च पञ्चधा-कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । त एते मूलभेदाः । उत्तरभेदोत्तरोत्तरभेदापेक्षया तु संलय यासङ्घय यानन्तविकल्पाश्च जायन्ते । स्पर्शश्च रसश्च गन्धश्च वर्णश्च स्पर्शरसगन्धवर्णास्ते सन्ति येषां पुद्गलानां ते स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त इति नित्ययोगेऽत्र मत्वर्थीयस्य विधानं यथा क्षीरिणो न्यग्रोधा इति । ननु रूपिणः पुद्गला इत्यत्र रूपाविनाभाविनां रसादीनामपि ग्रहणात्तेनैव सूत्रेण पुद्गलानां रूपादिमत्वे सिद्ध ऽनर्थकमिदं सूत्रमिति । नैष दोषः-नित्यावस्थितान्यरूपाणीत्यत्र सूत्रे धर्मादीनां नित्यत्वादिप्ररूपणया पुद्गलानामरूपत्वे प्राप्ते तन्निरासार्थं रूपिणः पुद्गला इत्युक्तम् । इदं समाधान-अब उसी लक्षण को सूत्र द्वारा कहते हैं सत्रार्थ-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं। जो छूआ जाता है अथवा छना मात्र स्पर्श है । उसके मूल भेद आठ हैं-मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । जो चखा जाता है अथवा चखना मात्र रस है उसके पांच भेद हैंतीखा, खट्टा, कड़वा, मीठा और कषायला। जो सूघा जाता है अथवा सूचना मात्र गन्ध है वह दो प्रकार की है-सुगन्ध और दुर्गन्ध । जो देखा जाता है अथवा देखना मात्र वर्ण है उसके पांच भेद हैं-काला, नीला, पीला, शुक्ल और लाल । ये तो मूल भेद हुए । उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा संख्यात असंख्यात और अनंत भेद हो जाते हैं । स्पर्श आदि पदों में द्वन्द्व समास है पुनः अस्ति अर्थ में वन्तु प्रत्यय लाकर बहुब्रीहि समास करना चाहिए । मत्वर्थीयप्रत्यय नित्य योग में आया है, जैसे 'क्षीरिणः न्यग्रोधाः' यहां पर क्षीरिणः पद में नित्य दूध वाले वृक्ष हैं ऐसे अर्थ में मत्वर्थीय इन् प्रत्यय आया है वैसे नित्य स्पर्शरसगन्धवर्ण वाले पुद्गल होते हैं ऐसे अर्थ में मत्वर्थीय वन्तु प्रत्यय आकर 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः' ऐसा पद बना है । शंका-रूपिणः पुद्गलाः' इस सूत्र में रूप के अविनाभावी रसादिका ग्रहण होता है अतः उस सूत्र से ही पुद्गलों का रूपादिमानपना सिद्ध होता है इसलिये यह सूत्र व्यर्थ है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है । 'नित्यावस्थान्यरूपाणि' इस सूत्र में धर्म आदि के नित्यत्वादि की प्ररूपणा की थी उससे पुद्गलों के भी रूपी पना प्राप्त हो रहा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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