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________________ पंचमोऽध्यायः [ ३०५ वत्प्राप्स्यद्वयपदेशो भवति तथा तत्कालाणूननुसरतां द्रव्याणां क्रमेण वर्तनापर्यायमनुभवतां भूतवर्तमानभविष्यद्वयवहारो भवति । तत्र परमार्थकाले कालव्यपदेशो मुख्यो भूता दिव्यपदेशो गौणः । व्यवहारकाले भूतादिव्यपदेशो मुख्यः कालव्यपदेशो गौणः क्रियावद्द्रव्यापेक्षत्वात्कालोपजनितत्वाच्च । स च व्यवहारकालो ज्योतिर्गतिपरिणामकृतत्वान्मनुष्यक्षेत्रे सम्भविष्यते नृलोकाद्बहिर्निवृत्तगतिव्यापारत्वाज्योतिषाम् । अथ किमर्थं परत्वापरत्वयोः पृथग्ग्रहणम् ? वर्तनापरिणाम क्रियापरत्वापरत्वानीत्येवं वक्तव्यमिति चेन्न - परस्परापेक्षत्वात्परत्वापरत्वयोः । पृथग्वचनस्य परत्वं ह्यपेक्ष्याऽपरत्वं भवति, अपरत्वं चापेक्ष्य परत्वमित्यदोषः । अत्र कश्चिदाह - धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालानामुपकार उक्तः । लक्षणं चोक्तमुपयोगादिकम् । पुद्गलानां तु सामान्यलक्षणं नोक्तम् । तत्किमित्यत्रोच्यते संज्ञा होती है, वैसे ही उन उन कालाणुओं का अनुसरण करने वाले द्रव्यों के क्रम से ना पर्याय को अनुभव करते हुए भूतवर्त्तमान और भविष्यत् ऐसा व्यवहार होता है । परमार्थ काल में 'काल' यह संज्ञा तो वास्तविक है, मुख्य है और भूत भावी आदि संज्ञायें तो गौण हैं । इससे विपरीत व्यवहार काल में भूत भावी आदि संज्ञायें तो प्रमुख होती हैं और 'काल' यह संज्ञा गौण है । यह व्यवहार काल क्रियावान द्रव्यों की अपेक्षा से होता है और कालाणु से जनित है अर्थात् व्यवहार काल का निमित्त कारण तो क्रियाशील द्रव्य है और उपादान कारण कालाणु है । तथा यह व्यवहार काल ज्योतिष्क विमानों की गति परिणमन से किया जाता है इसलिये मनुष्य क्षेत्र में ही होता है । क्योंकि मनुष्य लोक के बाहर के ज्योतिष्क विमान गति क्रिया से रहित हैं । शंका - परत्व और अपरत्व की पृथक् विभक्ति क्यों की है ? 'वर्त्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वानि' ऐसा सूत्र बनना चाहिए ? समाधान - परत्व और अपरत्व ये दोनों परस्पर की अपेक्षा से होते हैं इसलिये ये दोनों पद सूत्र में पृथक् रखे गये हैं । परत्व की अपेक्षा लेकर अपरत्व होता है और अपरत्व की अपेक्षा लेकर परत्व होता है । अत: इनकी पृथक् विभक्ति है इसमें दोष नहीं है । शंका- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल जीव और काल द्रव्य का उपकार आपने कह दिया तथा इनका लक्षण उपयोग आदि भी कह दिये । किन्तु अभी पुद्गल द्रव्यों का सामान्य लक्षण नहीं कहा है ? वह लक्षण क्या है ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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