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________________ ३०२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती विस्रसा । तन्निमित्तत्वात्तल्लक्षणः परिणाम उच्यते । स च द्वधा-अनादिरादिमांश्चेति । तत्रानादि र्लोकसंस्थानमन्दराकारादिः । स पुरुषप्रयत्नानपेक्षत्वाद्वःस्रसिकः आदिमांस्तु प्रयोगजो वैस्रसिकश्चेति द्वधा । तत्र चेतनस्य द्रव्यस्यौपशमिकादिर्भावः कर्मोपशमाद्यपेक्षोऽपौरुषेयत्वा स्रसिक इति कथ्यते । ज्ञानशीलभावनादिरूप प्राचार्यादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात्प्रयोगज इत्याख्यायते । अचेतनस्य च मृदादे र्घटसंस्थानादिपरिणामः कुम्भकारादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात् प्रयोगज इत्युच्यते । इन्द्रधनुरादिनाना विधवर्णादिपरिणामोऽपौरुषेयत्वाद्वैस्रसिक इति निगद्यते । तथा धर्माधर्माकाशानामगुरुलघुगुणवृद्धि हानिकृतोऽपरिस्पन्दात्मकः परिणामो वेदितव्यः । द्रव्यस्य बाह्याभ्यन्तरकारणवशादुत्पद्यमानः परिस्पन्दरूपः पर्यायः क्रियेत्यवसीयते । सा द्वेधा-प्रायोगिकी विस्रसानिमित्ता चेति । तत्र प्रायोगिकी शकटादीनां भवति । विस्रसानिमित्ता मेघादीनां विज्ञेया। गतिनिवत्तिलक्षणा स्थितिस्तु परिणामे ऽन्तर्भवतीति पृथङ नोक्ता । वर्तना च परिणामश्च क्रिया च वर्तनापरिणामक्रियाः । परत्वं चापरत्वं तरह उन निमित्तों से होने वाला होने से प्रयोग परिणाम और विस्रसा परिणाम ऐसा कहते हैं । उनके भी पुनः दो प्रकार हैं। आदिमान और अनादि लोक का संस्थान, मेरु का आकार आदि अनादि परिणाम रूप है, यह सब आकार रूप परिणाम पुरुष प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखता अतः वैस्रसिक है। आदिमान परिणाम दो प्रकार का है प्रयोगज और वैनसिक । चेतन द्रव्य के जो औपशमिक आदि भाव हैं वे कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं, पुरुष प्रयत्न से नहीं होने के कारण उन्हें वैनसिक कहते हैं । ज्ञान भावना, शील की भावना आदि रूप जो परिणाम हैं उनमें आचार्य आदि पुरुष प्रयत्न का निमित्त है अतः वे प्रयोगज परिणाम कहलाते हैं। अचेतन में जो मिट्टी आदि पदार्थों का घट आदि रूप संस्थान परिणाम है वह कुभकार आदि पुरुष प्रयोग के निमित्त से होता है अतः प्रयोगज कहलाता है। इन्द्र धनुष आदि नाना वर्णादि स्वरूप परिणाम अपौरुषेय होने से वैस्रसिक कहा जाता है । तथा धर्म अधर्म और आकाश द्रव्यों में अगुरु लघु नाम के गुणों की हानि-वृद्धि द्वारा जो परिस्पन्द रहित परिणाम होता है वह वैस्रसिक है। बाह्याभ्यन्तर कारणों के निमित्त से उत्पन्न होने वाली हलन चलन रूप जो द्रव्य की पर्याय है वह क्रिया है । वह दो प्रकार की है-प्रायोगिकी और वैस्रसिकी। उनमें शकट आदि की प्रायोगिक क्रिया है । मेघ आदि की क्रिया तो वैस्रसिकी कहलाती है। गति के रुकने रूप जो स्थिति है वह परिणाम में अन्तर्भूत होती है, अतः उसका पृथक निर्देश नहीं किया। वर्त्तना आदि पदों में तथा परत्व आदि पदों में द्वन्द्व समास जानना।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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